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गतांक से आगे
गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास
प्रो० ० सागरमल जैन
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नियुक्ति एवं श्वे० कर्मसाहित्य के परिप्रेक्ष्य में
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पूर्व निबन्ध में हमने गुणस्थान सिद्धान्त के विकास की पूर्व अवस्था के रूप में तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादित कर्म- निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं / गुणश्रेणियों की चर्चा की थी, जिन्हें हम गुणस्थान सिद्धान्त का मूलस्रोत मानते हैं । हम इस सम्बन्ध में अपनी खोज जारी रखे हुए थे कि तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित इन दस अवस्थाओं का आगमिक आधार क्या है ? और इन अवस्थाओं का प्राचीनतम उल्लेख किस ग्रंथ में मिलता है ? अपनी इस खोज के दौरान हमने श्वेताम्बर मान्य आगम साहित्य का आलोड़न किया किन्तु उसमें हमें कहीं भी इन अवस्थाओं का उल्लेख प्राप्त नहीं हो सका। यदि विद्वानों को इसका कोई संकेत भी उपलब्ध हो तो हमें सूचित करें। उसके बाद हमने प्राचीनतम आगमिक व्याख्याओं की दृष्टि से नियुक्तियों का अध्ययन प्रारम्भ किया और संयोग से आचाराङ्ग नियुक्ति में सम्यक्त्व पराक्रम नामक चतुर्थ अध्याय की नियुक्ति में इन दस अवस्थाओं का उल्लेख करने वाली निम्न दो गाथाएँ उपलब्ध हुईं
सम्मत्तुपत्ती सावए य विरए अनंतकम्मंसे । दंसणमोहक्खवए उवसामंते य उवसंते ||२२|| खवर य खीणमोहे जिणे असेढी भवे असंखिज्जा । तव्विवरीओ कालो संखिज्जगुणाइ सेढीए ||२३|| - आचाराङ्ग नियुक्ति (नियुक्ति संग्रह पृ० ४४१ )
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यदि हम नियुक्ति साहित्य को तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा प्राचीन मानते हैं तो हमें यह कहना होगा कि तत्त्वार्थसूत्र की इन दस अवस्थाओं का प्राचीनतम स्रोत आचारांग नियुक्ति ही है । यद्यपि
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