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स्याद्वाद एवं शून्यवाद
९५ शब्द द्वारा उसे अव्यक्त ही रहने दिया अर्थात् यद्यपि दोनों के तत्त्व विषयक भाव तो एक ही हैं किन्तु उनकी कथन शैली परस्पर भिन्न है । स्याद्वाद एवं शून्यवाद का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
स्याद्वाद परिचय -स्याद्वाद दो शब्दों के योग का परिणाम है स्यात्+वाद = स्याद्वाद । स्यात् का अर्थ है सापेक्षता एवं वाद का अर्थ सिद्धान्त या वदन करना । इस प्रकार स्याद्वाद का अर्थ हुआ सापेक्षता पूर्वक कथन करने का सिद्धांत । स्याद्वादमञ्जरी' के अनुसार स्यात् शब्द एकांतता का निराकरण करके अनेकांतता को प्रतिपादित करता है। स्यात्' यह अव्यय अनेकांत का द्योतक है, इसीलिए स्याद्वाद को अनेकांतवाद कहते हैं। सर्वथा सत्, सर्वथा असत्, सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य आदि एकांतिक वचनों का निषेध करके वस्तु का कथंचित् सत्, कथंचित् असत्, कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य आदि रूप होना अनेकांत है एवं वस्तु (तत्त्व) के उस अनेकान्तात्मक स्वरूप के कथन करने की विधि स्याद्वाद है--
__ 'अनेकांतात्मकं कथनं स्याद्वादः२ स्याद्वाद में प्रयुक्त 'स्यात्' शब्द किसी भी वस्तु विषयक कथन की सापेक्षता को ही संकेतित करता है। इसके सात भंग हैं - (१) स्यात् अस्ति (२) स्यात् नास्ति (३) स्यात् अस्ति च नास्ति च (४) स्यात् अवक्तव्यम् (५) स्यात् अस्ति च अवक्तव्यम् (६) स्यात् नास्ति च अवक्तव्यम् (७) स्यात् अस्ति च, नास्ति च अवक्तव्यम् च ।। __ स्याद्वादियों का मन्तव्य था कि वस्तुओं के अनन्त धर्म हैं और सभी धर्म वस्तुओं में सदा विद्यमान रहते हैं। ऐसा नहीं कि किसी समय उसमें एक धर्म हो और दूसरा धर्म न हो। किन्तु जब हम वस्तु-विषयक कोई कथन करते हैं तो उन धर्मों में से कोई धर्म प्रमुख हो जाता है एवं कोई गौण । किन्तु सभी धर्म वस्तु में रहते अवश्य हैं । वस्तु के अनन्त धर्मों का इन सात भंगों के माध्यम से कथन किया जा सकता है । संक्षेप में स्याद्वाद का तात्पर्य यही है कि (१) यह प्रत्येक कथन या १. डा० राधाकृष्णन्, एस. पूर्वोक्त पृ. १२८ २. स्यादित्यव्यय मनेकान्तद्योतकं ततः स्याद्वादोऽनेकान्तवाद:
(स्याद्वादमञ्जरी, ५) का व्याख्यार्थ
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