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________________ ८४ श्रमण, जनवरी-मार्च १९९२ के सिद्धान्त पर आ टिकी है। इस गलत दर्शन ने उसके जीवन की सामान्य मर्यादाओं को भी नकार दिया है। वह भूल गया है कि प्रकृति माँ है, जीवन दात्री है। आने वाले मानव की भी उसे चिंता नहीं है। कल काटे गए जंगलों से आज जल की विकट समस्या उत्पन्न हो गई है। कल फैलाया गया प्रदूषण आज घातक विष बन कर व्याप्त हो रहा है। वैज्ञानिकों ने पर्यावरण को मुख्यतया भू-मण्डल, जनमण्डल, वायु-मण्डल एवं जीव-मण्डल इन चार भागों में बांटा है। आज ये सभी दूषित हो गए हैं। इनको प्रदूषित करने का उत्तरदायित्व मानव का ही है । वैज्ञानिक खोजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि मानव ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जो सबसे ज्यादा प्रदूषण करता है तथापि वह अपने द्वारा किये गये प्रदूषण की जिम्मेदारी को स्वीकार नहीं करता है। वैज्ञानिक सदैव यह कर अपने उत्तरदायित्व से मुक्ति पा लेते हैं कि वे केवल साधनों की खोज करते हैं एवं उन्हें विकसित करते हैं, उपयोग का विवेक वे नहीं देते। उपयोग करने वाले व्यक्ति को यह निर्णय स्वयं करना है कि वह इसका किस प्रकार से उपयोग करे । परन्तु वे ऐसा कह कर अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकते । वैज्ञानिक परीक्षणों के लिए न केवल जल, थल और वायुमण्डल ही दूषित किया जाता है बल्कि कितने ही निरीह प्राणियों को प्रतिवर्ष यातना दी जाती है और उनके प्राण हर लिये जाते हैं । विज्ञान इनको उचित एवं आवश्यक बतलाता है। समुद्र में परमाणु परीक्षणों से होने वाले प्रदूषण से जलीय वनस्पति एवं जलीय जीवों की अपार हिंसा होती है। रासायनिक एवं जैव रासायनिक हथियारों के निर्माण एवं परीक्षण के लिए कितने ही प्राणियों की बलि दी जाती है। वैज्ञानिक शोध एवं परीक्षणों की संख्या तथा उनसे प्राप्त परिणामों की परस्पर तुलना की जाय तो कुल प्राप्ति नगण्य के बराबर ही है । अर्थात् हिंसा की तुलना में मिलने वाला लाभ कुछ एक क्षेत्रों को छोड़ कर विशेष नहीं हैं। यांत्रिक संस्कृति के विस्तार ने पर्यावरण एवं अन्य घटकों को बहुत अधिक प्रभावित किया है । जिस कार्बनिक एवं अकार्बनिक कूड़े को मानव निसृत कर रहा है, उसमें से कितने ही पदार्थ कई वर्षों तक पुनः विसर्जित नहीं होते एवं कितने ही विभिन्न रासायनिक एवं जैवरासायनिक विषों का निर्माण करते हैं। मानव घातक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525009
Book TitleSramana 1992 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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