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पर्यावरण एवं अहिंसा
जीवन भी संकटमय हो गया है। अब पंछी नीड़ नहीं बनाते कलरव मूक हो गया है और अधिकांश जंगल समाप्त हो गए हैं। अन्धाधुन्ध औद्योगिक प्रगति और आर्थिक साम्राज्यवादिता के जो नवीन मूल्य स्थापित हुए हैं वहाँ अहिंसा के मूल्य का कोई स्थान नहीं है । आज किसी भी देश के लिए यह गर्व की बात मानी जाती है कि वह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मांस का अधिक से अधिक कितना उत्पादन करता है। यह पौष्टिक भोजन के नाम पर की जाने वाली हिंसा का ही रूप है। तथाकथित सभ्य समाजों ने प्रकृति को आज जिस रूप में पहुँचा दिया है वह स्थिति चिन्ताजनक है । १८३० में जहाँ पृथ्वी की कुल जनसंख्या एक अरब थी वहाँ १९८६ में छः अरब हो गयी है और सन् २००० तक यह सात अरब की सीमा को पार कर जायेगी। जनसंख्या के इस विस्फोट ने पृथ्वी के अन्य प्राणियों, वनस्पतियों तथा सम्पूर्ण पर्यावरण को संकट में डाल दिया है।
औद्योगिक क्रांति की होड़ ने मानव शक्ति के प्रयोग और संसाधनों के विकास के लिए प्रकृति के दोहन का जो कुचक्र आरंभ किया उससे सम्पूर्ण पर्यावरण प्रभावित हुआ है । आज मानव अपने सुख एवं स्वार्थ के प्रति इतना समर्पित है कि अहिंसा को मानवता का धर्म स्वीकारने से कतराता है। भौतिक सुखों का स्वाद उसे लग चुका है तथा वह उस स्वाद को छोड़ना नहीं चाहता । पर्यावरण का संकट विश्वव्यापी है। International union for the Conservation of Nature के अनुसार २५,००० वनस्पति प्रजातियों के लप्त होने की संभावना है। १००० से ऊपर पक्षी एवं अन्य प्राणियों की प्रजातियां पिछले १०० वर्षों में विलुप्त हो चुकी है। मनुष्य ही मुख्यतः इसका उत्तरदायी है। उसने वनस्पति एवं प्राणियों के जीवन अवसर को ही कम नहीं किया है बल्कि अपने सुख, सनक एवं हिंसक आनन्द के लिए निरीह प्राणियों का वध किया है तथा जंगलों की निर्मम कटाई की है।
वस्तुतः प्रकृति के प्रति मानव की सोच ही गलत है। वह प्रकृति को दासी या भोग्या मानकर चला है, फलस्वरूप वह प्रकृति पर अत्याचार करने लगा है एवं स्वयं उसकी जीवन पद्धति भी अधिकतम भोग
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