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ऋषिभाषित का सामाजिक दर्शन
قلق
के विकृत पक्ष को उभारा नहीं जायेगा तो उसकी नारी के प्रति आसक्ति नहीं टूटेगी। यहाँ निन्दा, निन्दा के लिए नहीं किन्तु वैराग्य के लिए है। श्रमण परम्परा में नारी को समुचित गौरव प्रदान करने का ही प्रयत्न किया गया है। यही एक ऐसी परम्परा है जो नारी को पुरुष से स्वतन्त्र होकर जीवन जीना सिखाती है और स्पष्ट रूप से यह उद्घोषित करती है कि नारी भी आध्यात्मिक विकास की दिशा में आगे बढ़ सकती है। यही एक ऐसी परम्परा है, जिसमें नारी पुरुष को प्रबोधित कर उसे सन्मार्ग पर लाती है । जैन श्रमण परम्परा में ब्राह्मी, सुन्दरी, राजीमति आदि ऐसी अनेक नारियों के उल्लेख हैं जो पुरुषों को प्रतिबोधित करके सन्मार्ग की दिशा में ले गईं ।' अतः ऋषिभाषित में नारी निन्दा के कुछ चित्रणों को देखकर यह नहीं माना जा सकता कि वह नारी को कोई महत्त्व और मूल्य ही नहीं देता है। ऋषिभाषित और पारिवारिक सम्बन्ध :
ऋषिभाषित में भाई-बहन, पिता-पुत्र, पिता-पुत्री, पति-पत्नी, मां-पुत्र, माँ-पुत्री आदि का उल्लेख मिलता है। ऋषिभाषित इन विविध प्रकार के पारिवारिक सम्बन्धों का निर्देश करता है। उसकी दृष्टि में ये सभी पारिवारिक सम्बन्ध व्यक्ति के लिए दुःख के कारण माने गए हैं। इन पारिवारिक सम्बन्धों के प्रति रागभाव व्यक्ति को बन्धन में बांधता है और उनके प्रति घटित होने वाले दुःख-संकट, व्यक्ति के अपने दुःख-संकट बन जाते हैं । ऋषिभाषित के 'महाकाश्यप नामक अध्याय में भी कहा गया है कि भाई के मरण से, भगिनि के मरण से, पुत्र के मरण से, पुत्री के मरण से, भार्या के मरण से, अथवा अन्य स्वजन मित्र, बन्धु-बान्धवों के मरण से, उनकी दरिद्रता से, उनके भोजनाभाव से व्यक्ति दुःखग्रस्त होता है, वह उनके वियोग, अपमान, निन्दा, पराजय आदि दुःखों से स्वयं भी दुखित होता है। इस प्रकार ऋषिभाषित के लेखक की दृष्टि में व्यक्ति एक ओर पारिवारिक सम्बन्धों के कारण परिवार एवं समाज से बँधा हुआ है, तो दूसरी १. देखें, जैन धर्म में नारी की भूमिका, डॉ. सागरमल जैन, पृ० श्रमण २. इसिभासियाइं, ७-गद्य भाग ३. वही १-गद्य भाग
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