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श्रमण, जनवरी-मार्च १९९२ निन्दा भी विशेष रूप से देखी जाती है, इसमें कहा गया है कि वे ग्राम और नगर धिक्कार के योग्य हैं, जहां पर महिला शासन करती है और वे पुरुष भी धिक्कार के योग्य हैं, जो नारी के वशीभूत हैं ।" नारी निन्दा करते हुए उसमें कहा गया है कि वह सर्पवेष्ठित लता के समान है, जो पुरुष को आकर्षित करके, उसे दुःखी बना देती है । उसे सिंहयुक्त स्वर्ण गुफा, पुरुषों की विषयुक्त माला, विष मिश्रित गन्ध-गुटिका तथा भँवरयुक्त नदी कहा गया है । वह मदोन्मत्त बना देने वाली मदिरा के समान है । वह कुल का नाश करने वाली, निर्धन का तिरस्कार करने वाली, सर्वदुःखों का प्रतिष्ठा स्थान और आर्यत्व का नाश करने वाली है जिस ग्राम और नगर में स्त्रियाँ बलवान होकर बेलगाम घोड़े की तरह स्वच्छन्द होती हैं, वे ग्राम और नगर वस्तुतः तिरस्कार के योग्य हैं।
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इस समस्त चर्चा से यह स्पष्ट है कि ऋषिभाषित के गर्दभाली ऋषि स्पष्ट रूप से नारी को हेय दृष्टि से देखते हैं । किन्तु इस आधार पर यह कल्पना कर लेना कि श्रमण परम्परा मात्र नारी निन्दक है, उचित नहीं होगा । यह सही है कि श्रमण परम्परा के और विशेष रूप से जैन परम्परा के अनेक ग्रन्थों जैसे - सूत्रकृतांग, तंदुलवैचारिक आदि ग्रंथों में भी अनेक पृष्ठ नारी निन्दा से भरे हुए हैं किन्तु इस आधार पर उन ग्रन्थों अथवा उनसे जुड़ी हुई परम्परा को नारी निन्दक मान लेना भ्रान्तिजनक ही होगा । यहाँ किसी भी निर्णय पर पहुँचने के पूर्व हमें श्रमण परम्परा की जीवन दृष्टि को समझना होगा । यह स्पष्ट है कि श्रमण परम्परा वैराग्य-प्रधान है उसमें जो नारी निन्दा के चित्र मिलते हैं, उनका प्रयोजन नारी के व्यक्तित्व को गिराना नहीं है, अपितु पुरुष को नारी के प्रति आकर्षित होकर वासना में लिप्त होने से बचाना है । वस्तुतः नारी-निन्दा के ये समस्त चित्रण पुरुष को नारी से विमुख करने के लिए या उसमें वैराग्य भाव जागृत करने के लिए ही हैं, क्योंकि यदि उसके सम्मुख नारी जीवन
१. इसिभासियाई, २२-१ २. वही, २२ - २,६ ३. वही. २२-७
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