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ऋषिभाषित का सामाजिक दर्शन
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परस्पर सन्देह और अविश्वास जन्म लेते हैं, जिससे समाज की शान्ति भंग हो जाती है, क्योंकि समाज पारस्परिक विश्वास और नैतिक मानदण्डों की एकरूपता पर ही खड़ा होता है । ऋषिभाषित में इस स्थिति पर व्यंग्य करते हुए यह कहा गया है कि कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनका सभा में दूसरा रूप होता है थौर एकान्त में कुछ दूसरा रूप होता है अर्थात् वे करते कुछ हैं और कहते कुछ हैं ।' अंगिरस ऐसे व्यक्तियों के सन्दर्भ में स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि वे धर्म के लिए सदा अनुपस्थित रहते हैं, अर्थात् वे समाज व्यवस्था के लिए एक अभिशाप ही सिद्ध होते हैं । इसी प्रसंग में अंगिरस ने सामाजिक जीवन में प्रचलित बिना विचारे अनुकरण करने की प्रवृत्ति या भेड़ चाल की भी निन्दा की है । वे कहते हैं कि दुनिया वाले कल्याणकारी को पापकारी और पापकारी को सदाचारी बतलाते हैं । उन्होंने अन्धानुकरण की इस प्रवृत्ति को भी सामाजिक जीवन के लिए एक अभिशाप ही माना था, क्योंकि इसके कारण समाज में सम्यक् गुणों के प्रति सन्निष्ठा की स्थापना सम्भव नहीं थी । ऋऋषिभाषित और स्त्री-पुरुष सम्बन्ध
ऋषिभाषित के सामाजिक चिन्तन में स्त्री और पुरुष के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर भी चर्चा हुई है । यह सत्य है कि ऋषिभाषित के कुछ ऋषि ऐसे हैं, जो नारी की अपेक्षा पुरुष की ज्येष्ठता और श्रेष्ठता को स्वीकार करते हैं । ऋषिभाषित के बाईसवें अध्ययन में गर्दभाली नामक ऋषि स्पष्ट रूप से यह स्वीकार करते हैं कि धर्म पुरुष प्रधान है । वे कहते हैं कि 'धर्म पुरुष से स्थापित होता है, वह पुरुष प्रधान, पुरुष - ज्येष्ठ, पुरुष - कल्पित, पुरुष प्रद्योतित, पुरुष समन्त्रित और पुरुष को केन्द्रित करके रहता है । इस प्रकार यहाँ धार्मिक जीवन में भी पुरुष को प्रधानता दी गई है । इसी अध्याय में नारी
१. इसिभासियाई, ४-८
२. वही, ४-९
३. वही ४ - १३
४. पुरिसादीया धम्मा पुरिसपवरा पुरिस जेट्ठा । पुरिसकप्पिया पुरिसपज्जोविता
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वही, २२ - गद्य भाग
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