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________________ [ ५ ] में ही मनुष्य मूल्य-विश्व का आभास पाता है यद्यपि मूल्यांकन करने वालो चेतना मल्य-बोध में इस द्वन्द्व का अतिक्रमण करती है। वस्तुतः इस द्वन्द्व में जो पहल विजयी होता है उसी के आधार पर व्यक्ति की मूल्य-दृष्टि बनती है और जैसी मूल्य-दष्टि बनती है वैसा ही मूल्यांकन या मूल्य-बोध होता है। जिनमें जिजीविषा प्रधान हो, जिनकी चेतना को जैव प्रेरणाएँ ही अनुशासित करती हों, उन्हें रोटी अर्थात् जीवन का संवर्द्धन ही एकमात्र परम मूल्य लग सकता है, किन्तु अनेक परिस्थितियों में विवेक के प्रबुद्ध होने पर कुछ व्यक्तियों को चारित्रिक एवं अन्य उच्च मूल्यों की उपलब्धि हेतु जीवन का बलिदान ही एकमात्र परम् मूल्य लग सकता है। किसी के लिए वासनात्मक एवं जैविक मूल्य ही परम मूल्य हो सकते हों और जीवन सर्वतोभावेन रक्षणीय माना जा सकता हो, किन्तु किसी के लिए चारित्रिक या नैतिक मूल्य इतने उच्च हो सकते हैं कि वह उनकी रक्षा के लिए जीवन का बलिदान कर दे। इस प्रकार मूल्य-बोध की विभिन्न दृष्टियों का निर्माण चेतना के विविध पहलुओं में से किसी एक की प्रधानता के कारण अथवा देश-काल तथा परिस्थितिजन्य तत्त्वों के कारण होता है और उसके परिणामस्वरूप मलप-बोध तथा मूल्यांकन भी प्रभावित होता है । अतः हम कह सकते हैं कि मूल्य-बोध भी किसो सोमा तक दृष्टि-सापेक्ष है, किन्तु इसके साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि स्वयं दृष्टि भी मूल्य-बोध से प्रभावित होती है। इस प्रकार मूल्य-वोध और मनुष्य को जोवन-दृष्टि परस्पर सापेक्ष हैं। अरबन का यह कथन कि मूल्यांकन मूल्य को निर्धारित नहीं अपितु मूल्य ही अपनी पूर्ववर्ती वस्तुनिष्ठता के द्वारा मूल्यांकन को प्रभावित करते हैं, आंशिक सत्य ही कहा जा सकता है। मूल्य न तो पूर्णतया वस्तूतन्त्र है और न आत्मतन्त्र ही। हमारा मूल्य-बोध आत्म और वस्तु दोनों से प्रभावित होता है। सौंदर्य-बोध में, काव्य के रस-बोध में आत्मनिष्ठता और वस्तुनिष्ठता के इन दोनों पक्षों को स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है। सौंदर्य-बोध अथवा काव्य की रसानुभूति न पूरी तरह कृतिसापेक्ष है, न पूरी तरह आत्म-सापेक्ष। इस प्रकार हमें यह मानना होगा कि मूल्यांकन करने वाली चेतना और मूल्य दोनों हो एक-दूसरे से निरपेक्ष नहीं हैं । मूल्यांकन की प्रक्रिया में दोनों परस्पराश्रित हैं। एक ओर मूल्य अपनी मूल्यवत्ता के लिए चेतन सत्ता की अपेक्षा करते हैं दूसरी ओर चेतन सत्ता मूल्य-बोध के लिए किसी वस्तु, कृति या घटना की अपेक्षा करती है। मूल्य न तो मात्र वस्तुओं से प्रकट होते हैं और न मात्र आत्मा से। अतः मूल्य-बोध को प्रक्रिया को समझाने में विषयितंत्रता या वस्तुतंत्रता ऐका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525009
Book TitleSramana 1992 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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