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तिक धारणाएँ हैं । मूल्य का प्रकटोकरण चेतना और वस्तु (यहाँ वस्तु में कृति या घटना अन्तर्भूत हैं) दोनों के संयोग में होता है । पेरी सीमा तक सत्य के निकट हैं जब वे यह कहते हैं कि मूल्य वस्तु और विचार के ऐच्छिक सम्बन्ध में प्रकट होते हैं ।
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मूल्यों की तरतमता का प्रश्न
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मूल्य-बोध के साथ जुड़ा हुआ दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न है, मूल्यों के तारतम्य का बोध । हमें केवल मूल्य-बोध नहीं होता अपितु मूल्यों के उच्चावच क्रम का या उनकी तरतमता का भी बोध होता है । वस्तुतः हमें मूल्य का नहीं अपितु मूल्यों का, उनकी तरतुमता सहित, बोध होता है । हम किसी भी मूल्य- विशेष का बोध मूल्य विश्व में हो करते हैं, अलग एकाकी रूप में नहीं । अतः किसी मूल्य के बोध के समय ही उसकी तरतमता का भी बोध हो जाता है । किन्तु यह तरतमता का बोध भी दृष्टि-निरपेक्ष नहीं होकर दृष्टि सापेक्ष होता है । हम कुछ मूल्यों का उच्च मूल्य और कुछ मूल्यों को निम्न मूल्य कहते हैं किन्तु मूल्यों की इस उच्चावचता या तरतमता का निर्धारण कौन करता है ? क्या मूल्यों की अपनी कोई ऐसी व्यवस्था है जिसमें निरपेक्ष रूप से उसको तरमता का बोध हो जाता है ? यदि मूल्यों की तरतमता की कोई ऐसी वस्तुनिष्ठ व्यवस्था होती है तो फिर तरतमता सम्बन्धी हमारे विचारों में मतभेद नहीं होता । किन्तु स्थिति ऐसी नहीं है । अतः स्पष्ट है कि मूल्यों की तरतमता का बोध भो दृष्टि सापेक्ष है ।
भारतीय परम्परा में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की मूल्य-दृष्टियों की विविधता मूल्य - -बोध की सापेक्षता को ही सूचित करती है । पश्चिम में भी सत्य, शिव एवं सुन्दर के सम्बन्ध में इसी प्रकार का दृष्टिभेद परिलक्षित होता है । कुछ लोग सत्य को परम मूल्य मानते हैं तो दूसरे कुछ लोग शिव (कल्याण) को अथवा सुन्दर को परम मूल्य मानते हैं । भौतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की श्रेष्ठता अथवा कनिष्ठता के सम्बन्ध में भी जो मतभेद हैं वे सभी दृष्टि - सापेक्ष ही हैं। वस्तुतः जो किसी एक दृष्टि से सर्वोच्च मूल्य हो सकता है वही दूसरी दृष्टि से निम्न मूल्य भी सिद्ध हो सकता है । बलवत्ता या तीव्रता की दृष्टि से जहाँ जैविक मूल्य सर्वोच्च ठहरते हैं, वहीं विवेक एवं संयम की दृष्टि से आध्यात्मिक एवं अतिजैविक मूल्य उच्चतर माने जा सकते हैं । पुनः, किसी एक ही दृष्टि के आधार पर मूल्यों को
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