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________________ । ४ । इच्छोद्वेलन न होकर व्यक्त या अव्यक्त विवेक से आलोकित है, उसमें अनुभूति की जीवन्त सघनता और रागात्मकता ( लगाव ) के साथ ज्ञान की स्वच्छता और तटस्थता (अलगाव) उपस्थित मिलते हैं (मूल्य-मीमांसा)। इस प्रकार मूल्य-चेतना में ज्ञान, भाव और इच्छा तीनों ही उपस्थित होते हैं। फिर भी यह विचारणीय है कि क्या सभी प्रकार के मूल्यांकन में ये सभी पक्ष समान रूप से बलशाली रहते हैं ? यद्यपि प्रत्येक मूल्य-बोध एवं मूल्यांकन में ज्ञान, भाव और इच्छा के तत्त्व उपस्थित रहते हैं, फिर भी विविध प्रकार के मूल्यों का मूल्यांकन या मूल्य-बोध करते समय इनके बलाबल में तरतमता अवश्य रहती है। उदाहरणार्थ-सौंदर्य-बोध में भाव या अनुभूत्वात्मक पक्ष का जितना प्राधान्य होता है उतना अन्य पक्षों का नहीं। आर्थिक एवं जैविक मूल्यों के बोध में इच्छा की जितनी प्रधानता होती है उतनी विवेक या भाव की नहीं। यह बात तो मल्य विशेष की प्रकृति पर निर्भर है कि उसका मूल्य-बोध करते समय कौनसा पक्ष प्रधान होगा। इतना ही नहीं, मूल्य-बोध में देश-काल और परिवेश के तत्त्व भी चेतना पर अपना प्रभाव डालते हैं और हमारे मूल्यांकन को प्रभावित करते हैं। इस प्रकार मूल्य-बोध एक सहज प्रक्रिया न होकर एक जटिल प्रक्रिय है और उसकी इस जटिलता में ही उसकी सापेक्षता निहित है। जो आचार किसी देश, काल परिस्थिति विशेष में शुभ माना जाता है वही दुसरे देश, काल और परिस्थिति में अशुभ माना जा सकता है। सौंदर्य-बोध, रसानुभति आदि के मानदण्ड भी देश, काल और भक्ति के साथ परिवर्तित होत रहते हैं। आज सामान्यजन फिल्मी गानों में जो रस-बोध पाता है वह उसे शास्त्रीय संगीत में नहीं मिलता है। इसी प्रकार रुचि-भेद भी हमारे मल्य-बोध को एवं मूल्यांकन को प्रभावित करता है। वस्तुतः मूल्य-बोध की अवस्था चेतना की निष्क्रिय अवस्था नहीं है। जो विचारक यह मानते हैं कि मूल्य-बोध एक प्रकार का सहज ज्ञान है, वे उसके स्वरूप से ही अनभिज्ञ हैं। मात्र यही नहीं, रसानुभूति या सौंदर्यानुभूति में और तत्सम्बन्धी मल्य-बोध में भी अन्तर है। रसानुभति या सौंदर्यानुभति में मात्र भावपरक पक्ष की उपस्थिति पर्याप्त होती है, उसमें विवेक का कोई तत्त्व उपस्थित हो ही यह आवश्यक नहीं है, किन्तु तत्सम्बन्धी मूल्य-बोध में किसी न किसी विवेक का तत्त्व अवश्य ही उपस्थित रहता है । मूल्य-बोध और मूल्य-लाभ सक्रिय एवं सृजनात्मक चेतना के कार्य हैं। मूल्य-बोध और मूल्य-लाभ में मानवीय चेतना के विविध पक्षों का विविध आयामों में एक प्रकार का द्वन्द्व चलता है। वासना और विवेक अथवा भावना या विवेक के अन्तर्द्वन्द्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525009
Book TitleSramana 1992 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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