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गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास (तत्वार्थसूत्र और कसायपाहुड सुत्त के सन्दर्भ में)
__--प्रो० सागरमल जैन* व्यक्ति के आध्यात्मिक शुद्धि के विभिन्न स्तरों का निर्धारण करने के लिए जैन दर्शन में गुणस्थान की अवधारणा को प्रस्तुत किया गया है। उसमें व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का मूल्यांकन इसी अवधारणा के आधार पर होता है। यद्यपि गुणस्थान की अवधारणा जैन धर्म की एक प्रमुख अवधारणा है, तथापि प्राचीन स्तर के जैन आगमों यथा--आचाराङ्ग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, दशवैकालिक, भगवती आदि में इसका कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम समवायांग में जीवस्थान के नाम से इसका उल्लेख हुआ है । समवायांग में यद्यपि १४ गुणस्थानों के नामों का निर्देश हुआ है, किन्तु उन्हें गुणस्थान न कहकर जीवस्थान (जीवठाण) कहा गया है।' समवायांग के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थानों के १४ नामों का निर्देश आवश्यकनियुक्ति में उपलब्ध है, किन्तु वहाँ भी नामों का निर्देश होते हुए भी उन्हें गुणस्थान (गुणठाण) नहीं कहा गया है। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि मूल ___ * निदेशक, पार्श्वनाथ शोधपीठ वाराणसी-५ १. कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाण पण्णत्ता, तं जहा–मिच्छादिट्ठी; सासायणसम्मादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी, अविरयसम्मादिट्ठी, विरयाविरए, पमत्तसंजए, अप्पमत्तसंजए, निअट्टिबायरे, अनिअट्ठिबायरे, सुहुमसंपराएउवसामए वा खवए वा, उवसंतमोहे, खीणमोहे, सजोगीकेवली, अयोगीकेवली ।
--समवायांग (सम्पा० मधुकर मुनि), १४१९५ २. मिच्छादिट्ठी सासायणे य तह सम्ममिच्छादिट्ठी य ।
अविरयसम्मदिट्ठी विरयाविरए पमत्ते य॥ तत्तो य अप्पमत्तो नियट्टिअनियट्टिबायरे सुहुने। उवसंतखीणमोहे होइ सजोगी अजोगी य॥
-नियुक्ति संग्रह (आवश्यकनियुक्ति), पृ० १४९
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