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________________ श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१ ६२ पक्ष मिलते हैं। प्रश्न यह नहीं है कि ऋग्वेद में हिंसा होती थी अथवा नहीं। प्रश्न यह है कि जो हिंसा होती थी, उसमें ऋग्वैदिक ऋषि का नैतिक पक्ष दष्टिगोचर होता था अथवा नहीं। इस दृष्टि से ऋग्वेद का अध्ययन करने पर हमें दो तथ्य उपलब्ध होते हैं--- १. ऋग्वैदिक ऋषियों ने वहाँ हिंसा का निषेध नहीं किया जहाँ हिंसा करणीय है। २. जहाँ हिंसा नहीं करनी चाहिए वहाँ निषेध किया। कहाँ हिंसा __ करनी चाहिए और कहाँ नहीं करनी चाहिए इसका विवेक ऋग्वैदिक ऋषियों को था। वे कभी भी निरीह प्राणियों की हिंसा की बात नहीं सोचते थे। उनकी दृष्टि में जो हितावह हो, निरीह हो, जो अपने लिए उपयोगी हो, वह सदा सर्वदा रक्षा के योग्य होता है, चाहे उसके उपयोग की शक्ति नष्ट ही क्यों न हो गयी हो। जैसे गाय सदैव "अध्न्या" है चाहे वह दूध देती हो अथवा न देती हो। दूसरी ओर आतताइयों, शत्रुओं, यज्ञ में बाधा पहुँचाने वाले राक्षसों की हिंसा के स्पष्ट उल्लेख ऋग्वेद में मिलते हैं। वे देवताओं से उनकी हिंसा की प्रार्थना करते थे जिसमें उनकी आत्मरक्षा की भावना ही प्रमुख थी। यज्ञों में पशुबलि के पीछे भी यही भाव निहित था कि हम शक्ति प्राप्त करें, क्योंकि युद्ध करने के लिए तथा हिसकों से बचने के लिए शक्तिप्राप्ति अनिवार्य थी । अतः कहा जाता है कि "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति ।" निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि ऋग्वेद में अहिंसा का प्रस्तुतीकरण सैद्धान्तिक रूप में भले ही न हुआ हो किन्तु व्यावहारिक रूप से वैदिक ऋषियों को हिंसा-अहिसा का विवेक था। ऋग्वेद में इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि उस काल के संघर्षमय जीवन की मान्यताओं में जहाँ हिंसा के लिए द्वार मुक्त था, वहाँ कहीं न कहीं ऋषियों के अन्तःकरण में अहिंसा भावना भी विश्राम कर रही थी। रिसर्च एसोसिएट, संस्कृत विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525006
Book TitleSramana 1991 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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