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________________ ऋग्वेद में अहिंसा के सन्दर्भ नियमों से युक्त यज्ञ के द्वारा मनोरथ को पूर्ण करने वाले हैं। इसी प्रकार ऋग्वेद के दशन् मण्डल में यज्ञ को, हिंसकों का नाशक मानकर "अन्तकधुक" संज्ञा दी गयी है। प्रथम मण्डल में अग्नि की स्तुति करते हुए उसे 'अध्वराणाम् रथो' कहा है, अर्थात् हिंसा, कुटिलता, कपट आदि कर्मों को न करने के कारण ये श्रेष्ठ हैं। सायण ने इसकी टीका की है कि, वह अग्नि (देव) हिंसायुक्त कामों में कभी भी हिस्सा नहीं लेता और हिंसारहित काम करने वाले को वह उत्तम सामर्थ्य और यशयुक्त धन देता है। ऋग्वेद के दशम् मण्डल में यज्ञ में किये जाने वाली पशु बलि का निषेध किया है। निम्न मन्त्र से इस तथ्य पर और अधिक प्रकाश पड़ता है - "क्रव्यादमग्निं प्र हिणोमि दूरं यमराज्ञो गच्छतु रिप्रवाहः । इहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन् ।"४ अर्थात्-मांस खाने वाले अग्नि को दूर हटाता हूँ। पापवाहक अग्नि यमराज के अन्य प्रदेशों में जाएँ। इन दोनों से पृथक् सर्वज्ञ अग्नि देवार्थ हवि ले जाएँ। इसी मण्डल के १०वें मन्त्र में भी समान भाव दृष्टिगोचर होता “यो अग्निः क्रव्यात्प्रविवेश वो गृहमिमं पश्यनितरं जातवेदसम् । तं हरामि पितृयज्ञाय देवं स धर्ममिन्वात्परमेसधस्थे ॥५ ___ अर्थात्-जो मांसभक्षक अग्नि तुम्हारे गृहों में प्रविष्ट हैं, उन्हें मैं घर से दूर करता हूँ। क्योंकि पितृयज्ञ के लिए इससे भिन्न दूसरी अग्नि जातवेदस है। यह उत्कृष्ट स्थान में स्थित अग्नि यज्ञ को प्राप्त करे । . वस्तुतः ऋग्वेद में हिंसा के विधेयात्मक तथा निषेधात्मक दोनों १. ऋग्वेद-७।३४।८ २. वहीं १०।१३।४ ३. वही १।४४।२ ४. वही १०।१६।९ ५. वही १०।१६।१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525006
Book TitleSramana 1991 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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