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श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१ यज्ञीय पशुबलि का उद्देश्य प्राणिहिंसा मात्र नहीं था। ये यज्ञकर्ताओं के साध्य नहीं अपितु साधन थे जिनके माध्यम से ऐहिक और लोकोत्तर सुख की कामना की जाती थी। उनका उद्देश्य सामूहिक भोज नहीं होता था अपितु उसे धार्मिक कृत्य माना जाता था जिसके मूल में लोकोत्तर सुख की भावना प्रमुख थी। इसके साथ ही वैदिक ऋषियों की यह मान्यता भी थी कि, यज्ञ में बलि दिये जाने वाले पशु को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। वास्तव में पशुबलि देना ही उनका उद्देश्य नहीं था, वह तो मात्र साधन था जो साध्य कल्याण की भावना और बृहत्तर अभ्युदय की भावना पर केन्द्रित था। ___ऋग्वेद में कतिपय ऐसे भी संकेत प्राप्त होते हैं जिनमें यज्ञों के हिंसा रहित होने के उल्लेख हैं। ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर यज्ञ के लिए "अध्वर” शब्द का प्रयोग हआ है जिसका अर्थ सायण ने "हिंसारहित" लिया है। उदाहरणतया ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में "अग्नेयं यज्ञमध्यवरं" में "अध्वर" का अर्थ “हिंसारहित' किया है।' “अध्वर" शब्द का मुख्यार्थ है-“यत्रध्वरा न भवति"
ध्वरति वधकर्मा तत्प्रतिषेधो ध्वरः' अर्थात् ध्वरति का अर्थ वधकर्म है तथा उसका प्रतिषेध “अध्वर" है ।२ यदि जहाँ हिंसा नहीं होती मात्र यही अर्थ लिया जाय तो हिंसारहित सारे ही कर्मों को “अध्वर'' कहा जाएगा, परन्तु सामान्यतः वैसा न कहा जाकर यह “अध्वर" शब्द यज्ञ का वाचक माना जाता है। ऐसा भी नहीं कह सकते कि पहले यज्ञ में हिंसा होती रही हो और हिंसा बन्द करने के बाद यज्ञ को 'अध्वर'' कहा गया हो, क्योंकि “अध्वर' शब्द विशेषकर पशुयज्ञ के लिए ही प्रयुक्त होता है । अतः यही अर्थ सुसंगत प्रतीत होता है कि जहाँ हिंसा नहीं होती वह “अध्वर' है।
ऋग्वेद के सप्तन् मण्डल में यज्ञ के लिए “अयातुः ऋतेन" संज्ञा प्रयुक्त हुई जिसका अर्थ सायण ने “अहिंसक यज्ञ'' किया है। इस मन्त्र में यही भाव व्यंजित है कि यज्ञ में हिंसारहित कर्म होते थे। अग्नि को सम्बोधित करते हुए उन देवताओं की स्तुति की है जो अहिंसादि
१. ऋग्वेद-१।१।४ २. निरुक्त-१।३।८
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