________________
जैन आगमों में वर्णित जातिगत समता
___-डॉ० इन्द्रेश चन्द्र सिंह जैन धर्म उस श्रमण-परम्परा का धर्म है जो मूलतः वर्ण-व्यवस्था और जातिगत ऊँच-नीच की भावना का विरोधी थी। जैन धर्म में जन्मगत आधार पर न तो किसी को उसमें प्रवेश से वंचित किया जाता था और न ही उसे निम्न माना जाता था। हरिकेशी जैसे चाण्डाल का सम्मानपूर्वक उल्लेख और जातिगत ऊँच-नीच की अवधारणा का खण्डन हमें प्राचीन स्तर के जैन आगमों में उपलब्ध होता है। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि प्राचीन जैन धर्म में जातिवाद के आधार पर ऊँच-नीच की अवधारणा को कोई स्थान नहीं था।
यद्यपि प्राचीन जैन आगमों में आर्य एवं अनार्य तथा आर्यक्षेत्र और अनार्यक्षेत्र की चर्चा हमें उपलब्ध होती है। जैन साधुओं का अनार्य क्षेत्र में विहार करना भी वर्जित माना गया था, किन्तु आर्य और अनार्य की ये अवधारणाएं मूलतः ऊँच-नीच की भावना को लेकर नहीं अपितु सभ्यता और संस्कृति के विकास के स्तर को लेकर थी अनार्य क्षेत्रों में मुनि का विहार इसलिये वजित था, क्योंकि उनका सांस्कृतिक विकास नहीं हुआ था और वे सामान्यतया जैन मुनियोंके आचार-व्यवहार से अपरिचित भी थे, इसके साथ-साथ उनका बौद्धिक विकास भी इस स्तर का नहीं था कि वे आध्यात्मिक साधना में सहज रूप से जुड़ सकें किन्तु इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि वे जैनों की दृष्टि में हेय थे । अनार्य क्षेत्रों में मुनि के विहार का निषेध उन सामान्य मुनियों के लिए किया गया था जो उन क्षेत्रों के कष्टों या परिषहों को सहन करने में असमर्थ थे। वैसे तो स्वयं भगवान् महावीर ने अनार्य क्षेत्र में विचरण किया था। इतना तो निश्चित है कि सैद्धान्तिक आधार पर जैन धर्म में सभी मनुष्यों को समान समझा गया और यह माना गया कि कोई भी व्यक्ति जैन धर्म में प्रवेश की योग्यता रखता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org