SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भ्रमण, अप्रैल-जून, १९९१ ૪૮ सदा उत्तम मन और शुभ संकल्पों के साथ ईश्वर की साधना करनी चाहिए । एक स्थल पर ऋषि कहता है- देवत्व की कामना करने वाले मुझ साधक को जो शत्रु मारता है, दुष्ट वचन कहता है अथवा शाप देता है, उसकी भी निन्दा करने से डरता हूँ, जैसे कोई चतुर पुरुष जुआ खेलते समय, पासा किसके पास जायेगा - यह सोचकर डरता है ।' पाप भी मानव मन की एक दुष्प्रेरक स्थिति है जिसे मानसिक हिंसा से जोड़ा जा सकता है । पापयुक्त हृदय से अहिंसा का विचार कदापि स्थापित नहीं किया जा सकता, क्योंकि पाप भी हिंसा का ही एक अंग है । हिंसात्मक कार्यों को जब धार्मिक दृष्टि से देखा जाता है तो वह पाप कहलाता है । ऋग्वेद में अनेक ऐसे प्रसंग मिलते हैं जिसमें पाप को दूर करने की प्रार्थना की गयी है । ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल में आदित्यों से रोग, शत्रु, दुर्बुद्धि को दूर करने की तथा पाप से पृथक् करने की प्रार्थना की गयी है । ऋग्वेद के चतुर्थ मण्डल में भी स्वयं को पाप एवं दुष्कर्मों से दूर करने की अग्नि से प्रार्थना की है । एक अन्य स्थल पर अग्नि से स्तुति करते हुए वैदिक ऋषि कहता है- रात्रि में जो आप सुखकर हैं, द्योतमान हैं, हम यजमानों की पाप रूपमति को दूर करें, हमारे पाप को दूर करें तथा हमारी दुर्मतियों को दूर करें । अनेक स्थानों पर अपने हृदय को निर्मल, पवित्र एवं पाप रहित करने की प्रार्थना की गयी है । अतः स्पष्ट है कि अहिंसा भाव से युक्त, विकाररहित शुद्ध अन्तःकरण की कामना ऋग्वैदिक ऋषियों को अभीष्ट है । ऋग्वेद के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वैदिक ऋषियों के द्वारा देवताओं के प्रति की हुई ऐसी अनेक स्तुतियाँ हैं, जिनमें उनसे सद्गुण ग्राह्यता, सौमनस्य, सदाशयता आदि देने की प्रार्थना की गयी है । इसी प्रसंग के निम्नोक्त मन्त्र में ऋषि इन्द्र की स्तुति करता है और उन स्तुतियों को सद्गुणग्राही होने की प्रार्थना करता है १. ऋग्वेद – १।४१।८-९ २. ऋग्वेद – ८1१८1१० ३. ऋग्वेद - ४११२।४-६ ४. ऋग्वेद – ४।११।६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525006
Book TitleSramana 1991 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy