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ऋग्वेद मे अहिंसा के सन्दर्भ
"अस्मे ता त इन्द्र सन्तु सत्याहिंसन्तीरूपस्पृशः ।
विद्यामयासां भुजो धेनूनां न वज्रिवः ॥" सायण के भाष्यानुसार इसका भाव है कि-हे इन्द्र ! हमारी स्तुतियां तुम्हें पीड़ा न देती हुई (उद्वेलित न करती हुई), इस प्रकार हमारे दृष्ट-अदृष्ट भोगों को देने वाली हो जैसे गोरक्षकों के लिए गाय से दुग्धादि भोग मिलते हैं । यहाँ पर सायण ने अहिंसन्ती का अर्थ अहिंसक लिया है। दशम् मण्डल के एक अन्य मन्त्र में कहा गया है कि मुझमें जो दोष हों, जो मैंने द्रोह किया हो, जो श्राप दिया हो तथा जो असत्य भाषण किया हो, उन सब दोषों को जल मेरे शरीर से बाहर ले जाए और मैं शुद्ध हो जाऊँ । ऋग्वेद में विश्वशान्ति के भाव पर भी बल दिया गया है। वैदिक ऋषि कामना करता है-सूर्य की किरणें हम सभी के लिए शान्ति प्रदान करने वाली हो, सभी दिशाएँ शान्तिदायक हो।
"शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु' । वाचिक अहिंसा
परुषभाषण के द्वारा दूसरों को पीड़ा पहुँचाना अथवा वाणी द्वारा द्रोह प्रकट करना वाचिक हिंसा है तथा मृदुवाणी एवं मंगलमय वचनों द्वारा दूसरों को सुख पहुँचाना वाचिक अहिंसा कहलाता है। ऋग्वेद के द्वितीय मण्डल में वाचिक अहिंसा का स्वरूप स्पष्ट रूप से वर्णित है
"सुमङ्गलो भद्रवादी वदेह'४ सायण ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है--
"सुमङ्गलम् कल्याणमङ्गल: भद्रवादी शोभनवादी सन् इह अस्मद्विषये वद मङ्गलम् सूचम् ।"
इसी प्रकार दशम मण्डल में वाचिक अहिंसा के स्वरूप को उपमा के द्वारा अधिक स्पष्ट किया गया है
१. ऋग्वे ६-१०।२२।१३ २. ऋग्वेद -१०।९।८ ३. ऋग्वेद-७।३५।८ ४. ऋग्वेद२।४२।२-३
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