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श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१
अर्ह को तात्त्विक नमस्कार है । अहं सिद्धचक्र रूपी तन्त्र का आदिबीज है । धर्मसाक्षरम् के अनुसार
अक्षरमनक्षर वै द्विविधं तत्त्वभिष्यते । अक्षर बीजमित्याहुर्निबीज चाऽप्यनक्षरम् ।।
अक्षर और अनक्षर दो प्रकार के तत्त्व हैं - बीज सहित होने से अक्षर और बीज रहित होने से अनक्षर । इसी प्रकार जो स्व स्वरूप से चलायमान न हो वह अक्षर है - यही तत्त्व ध्येय रूप ब्रह्म है। मंत्र शब्द का अर्थ है - ' मन्यते ज्ञायते आत्मादेशोऽनेन इति मन्त्रः' अर्थात् जिसके द्वारा आत्मा का आदेश निजानुभव से जाना जाय वह मन्त्र है । अन्य प्रकार से विचारकर लें - 'आत्मादेशी येन समन्त्रः, ' जिसके द्वारा आत्मादेश पर विचार किया जाय वह मन्त्र है । तृतीय दृष्टि से 'मन्यन्ते सत्क्रियन्ते परमपदे स्थिताः आत्मानः वा यक्षादिशासन देवता अनेन इति मन्त्रः' अर्थात् पंच आत्माओं अथवा यक्षादि शासनदेवता का सत्कार किया जाय वह मन्त्र है । मन्त्र कूट और अकूट दो प्रकार का होता है । संयुक्त मन्त्र को कूट और असंयुक्त मन्त्र को अकूट कहते हैं । कूट मन्त्र में अधिक अक्षरों में भी मन्त्र एक ही अक्षर होता हैअन्य परिकर स्वरूप होते हैं । मन्त्र से आत्म ध्यान, ज्ञान और अभेदत्व सिद्ध होता है -
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भिद्यते हृदयग्रन्थि छिद्यन्ते सर्व संशयाः क्षीयन्ते चैव कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परापरेः
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( मुण्डकोपनिषद् २ - २८) अभिधेयार्थ की दृष्टि से अईं परमेश्वरपरमेष्ठि का वाचक मन्त्र है । परमेष्ठि से तात्पर्य है - अरिहंत परमात्मा, जो परम पद पर स्थित है परमेष्ठि है । परमेश्वर उपपदः (विशेषण) के लिए हेमचन्द्राचार्य का कथन है
रागादिभिरनाक्रान्तो, योगक्षेम विधायकः नित्यं प्रसत्ति पात्रं यस्तं देवं मुनियोविदुः ।
जो रागादि से आक्रान्त नहीं हैं, योग-क्षेम के दाता हैं - सदा प्रसन्न रहते हैं - मुनिगण उन्हें ही देव कहते हैं (दृष्टव्यः लोगस्स व नमोत्थुण
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