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शोध प्रबन्धसार
उपदेशमाला (धर्मदासगणि) : एक समीक्षा
- दीनानाथ शर्मा उपदेशमाला जैन औपदेशिक साहित्यविधा का प्राचीनतम ( लगभग १५०० वर्ष पुराना ) और एक श्रेष्ठ प्राकृत ग्रन्थ है । इसमें चतुर्विध संघ के आचार से सम्बन्धित उपदेश संगृहीत हैं।
इस ग्रंथ में एक विशिष्ट शैली का निर्माण किया गया है जिसे बाद में अनेक जैनाचार्यों ने अपनाया और इस प्रकार के कई ग्रंथ लिखे गये। यहाँ पर सरल पद्यों में विविध औपदेशिक विषयों को लेकर उपदेश देने के साथ-साथ उस विषय के दृष्टान्त के रूप में जैन पुराणों में प्रसिद्ध कथाओं की एक माला-सी गुंथी गई है। ये दृष्टान्त उस लेखक के समय तक प्रचलित हो गये थे । नित्य स्वाध्याय करने वाले और व्याख्यान करने वाले साधुओं को भी इसके पद्यों को कण्ठस्थ करना सहज था। इसके पठन से पाठ करने वाले और सुनने वाले के सामने इन दृष्टान्तों की कथाएँ तादृश हो जाती थीं। इसलिए यह साधुओं और श्रावकों दोनों के लिये अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ और इसका प्रचलन भी बहुत बढ़ा। __ उपदेशमाला के आधार पर २४ औपदेशिक ग्रन्थ लिखे गये, इस ग्रंथ की ३२ बृहद् और लघु टीकायें भी लिखी गयी हैं। इसके आठ विभिन्न संस्करण अब तक प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें उपमितिभवप्रपंचकथा नामक प्रसिद्ध महाकथा के रचयिता महान् जैनाचार्य सिद्धर्षि की हेयोपादेया टीका, उसका गुजराती अनुवाद, रत्नप्रभसूरि की दोघट्टी टीका उसका गुजराती अनुवाद और रामविजय की टीका तथा उसका हिन्दी अनुवाद सम्मिलित हैं। __इन सभी संस्करणों को देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि मूल पाठ में कहीं-कहीं पर व्याकरण की, छन्द की या दोनों की त्रुटियाँ हैं ।
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