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व्यवहार असम्भव हो जायेगा। इस अध्याय में हमने इस सम्बन्ध में भी विचार किया है कि शब्द का वाच्य जाति है या व्यक्ति ? जहाँ मीमांसक शब्द का वाच्य जाति मानते हैं वहाँ बौद्ध शब्द का वाच्य व्यक्ति को मानते हैं। यद्यपि नैयायिकों ने इन दोनों विरोधी मतों का समन्वय करके जाति विशिष्ट व्यक्ति मत को स्वीकार किया था किन्तु जैन दार्शनिक उनसे भी एक कदम आगे बढ़कर यह कहते हैं कि जाति से व्यतिरिक्त व्यक्ति और व्यक्ति से व्यतिरिक्त जाति की सत्ता ही नहीं है। अतः शब्द का वाच्य वह समन्वित सत्ता है जिसमें जाति और व्यक्ति दोनों अनुस्यूत हैं।
चतुर्थ अध्याय में हमने मुख्य रूप से भाषा की वाच्यता-सामर्थ्य पर विचार किया है । इस सम्बन्ध में हमने भाषायी अभिव्यक्ति के प्रारूपों तथा कथन की सापेक्षता पर विचार किया है और यह भी बताया है कि जैन दार्शनिकों के अनुसार भाषा में सीमित वाच्यता सामर्थ्य है। पदार्थ आंशिक रूप से ही वाच्य बनता है। अत: जैन दार्शनिक वस्तु तत्त्व को आंशिक रूप से वाच्य और समग्र रूप से अवाच्य मानते हैं ।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का पांचवाँ अध्याय भाषायी कथनों की सत्यता और असत्यता से सम्बन्धित है। इस सम्बन्ध में हमने जैन आगमों में उल्लिखित सत्य भाषा, असत्य भाषा, सत्यासत्य, असत्य-असत्य भाषा एवं उनके विविध प्रकारों की चर्चा की है और इस सम्बन्ध में जैनों के दृष्टिकोण की आधुनिक भाषा विश्लेषण के सिद्धान्त से तुलना भी की है।
शोध-निबंध का अन्तिम अध्याय उपसंहार रूप है। अन्त में हम यह कहना चाहेंगे कि जैन दार्शनिकों ने न केवल भारतीय दर्शन में प्रस्तुत भाषा सम्बन्धी विरोधी मतवादों में समन्वय स्थापित किया अपितु उन्होंने अर्थबोध की स्पष्टता के लिए नय-निक्षेप, स्याद्वाद, सप्तभंगी जैसे विशिष्ट सिद्धान्तों को भी उपस्थित किया और इस प्रकार भाषा दर्शन के क्षेत्र में उनका अवदान महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है।
प्रस्तुत शोध-निबन्ध में मैंने अपनी सामर्थ्य के अनुरूप जैन भाषादर्शन के प्रस्तुतीकरण का एक प्रयास तो अवश्य किया है यद्यपि मैं यह जानती हूँ कि इस दिशा में बहुत कुछ करने को शेष है ।
शोध छात्रा पा० वि० शोध संस्थान, वाराणसी-५ दर्शन विभाग, का० हि० वि० वि० में पी० एच० डी० की उपाधि हेतु प्रस्तुत
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