SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ९५ ) यह बताया गया है कि जैन भाषा दर्शन की प्रमुख समस्या क्या है ? और जैनों का भाषा दर्शन के क्षेत्र में विशिष्ट अवदान क्या है ? इस अध्ययनमें हमें जैनाचार्यों की जो विशेषता देखने को मिली वह यह कि उन्होंने भाषा दर्शन के क्षेत्र में परस्पर विरोधी मतों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया और यह विशेषता मुख्य रूप से उनकी अनेकान्तिक दृष्टि का ही परिणाम है । दूसरे अध्याय में भाषा और लिपि के विकास के सम्बन्ध में चर्चा की गयी है । इस सम्बन्ध में भाषा की उत्पत्ति को लेकर पूर्व और पश्चिम के अनेक मतों की समीक्षा करते हुए अन्त में यह बताया गया है कि जैनों का मत क्या है ? वह कितना वैज्ञानिक है ? भाषा की उत्पत्ति के प्रश्न के साथ-साथ लिपि के विकास पर भी चर्चा की गयी है और इस सन्दर्भ में जैन आगम साहित्य में क्या निर्देश है, उसे भी स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है । इसके साथ ही इस अध्याय में शब्द का स्वरूप, शब्द के प्रकार तथा शब्द के वाच्यार्थ तथा वाच्यार्थ बोध एवं ज्ञान प्रक्रिया की चर्चा भी हमने की है । इस सन्दर्भ में जैनों का विशिष्ट अवदान यह है कि शब्द को वर्णात्मक न मानकर ध्वन्यात्मक माना और इस आधार पर शब्द को आकाश का गुण न बताकर पुद्गल की पर्याय बताया । शब्द पौद्गलिक है यह जैनों की अपनी विशिष्ट अवधारणा है । इसी अध्याय में हमने इस तथ्य को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि शब्द के श्रवण से वाच्यार्थ का ज्ञान किस प्रकार होता है। प्रस्तुत प्रबन्ध का तीसरा अध्याय शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को लेकर है । ज्ञातव्य है कि शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को लेकर मीमांसक तथा बौद्धों का दृष्टिकोण अलग है । जहाँ मीमांसक शब्द और अर्थ के बीच नित्य सम्बन्ध स्वीकार करते हैं वहाँ बौद्ध इन दोनों के मध्य सम्बन्ध ही नहीं मानते हैं । जैनों का दृष्टिकोण इस सम्बन्ध में समन्वयात्मक है । जैनों के अनुसार शब्द और अर्थ के मध्य तादात्म्य सम्बन्ध तो नहीं है, परन्तु वाच्य वाचक सम्बन्ध अवश्य है । अग्नि शब्द को सुनकर जलन की अनुभूति तो नहीं होती, परन्तु अग्नि नामक पदार्थ का बोध अवश्य होता है । इस सम्बन्ध में जैन दार्शनिकों का कहना है कि यदि शब्द और अर्थ में कोई सम्बन्ध ही नहीं मानेंगे, तब भाषा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525005
Book TitleSramana 1991 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy