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( ९८ ) इसलिये उपदेशमाला के समीक्षात्मक सम्पादन की आवश्यकता प्रतीत हुई।
उपदेशमाला की अनेक प्रतियाँ जैन भण्डारों में मिलती हैं उनमें से पुरानी एवं अधिक शुद्ध हस्तप्रतों में से इस समीक्षात्मक सम्पादन के लिये सात ताडपत्रीय हस्तप्रत एवं एक कागज की हस्तप्रत को चुना गया है। इसमें एक जैसलमेर भण्डार की (वि०सं० ११९२ ), तीन खम्भात के भण्डार की (१-१२वीं सदी उत्तरार्द्ध, २-वि०सं० १२९०, ३-वि०सं० १३०८), दो पाटण की ( एक वि०सं० १३२६ और दूसरी अज्ञात संवत् ) और दो पूना ( एक ताड़पत्र की और एक कागज की, समय-अज्ञात ) की हैं।
सम्पादन में मौलिकता का ध्यान रखा गया है। पाठान्तरों को नीचे फुटनोट में दे दिया गया है। जो पाठ त्रुटित हैं उनको "क्षत" से दर्शाया गया है । छन्द में जहाँ प्रतों में ह्रस्व-दीर्घ का कोई संकेत नहीं मिलता वहाँ आवश्यकतानुसार संकेत चिह्न लगा दिये गये हैं, यथा बहुयाई = बहुयाइं गाथा नं० (४) यहाँ पर-इं दीर्घ मात्रा पर ह्रस्व का संकेत लगाकर-ई कर दिया गया है। . वैसे तो उपदेशमाला में गाथाओं की संख्या भिन्न-भिन्न हस्तप्रतों एवं संस्करणों में ५४१ से ५४४ तक मिलती है लेकिन विषयवस्तु की दृष्टि से ५३९ गाथाएं ही उपयुक्त ठहरती हैं और ५४०वीं गाथा उपसंहार के रूप में है। इस प्रकार कुल ५४० गाथाएँ हैं और बाद की अन्य गाथाएं उपदेशमाला की प्रशस्ति के रूप में हैं।
इस शोध-प्रबन्ध में जो भाषा विषयक अध्ययन है उसमें उपदेशमाला का भाषा-शास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत किया गया है जिसमें ध्वनिपरिवर्तन और रूप-रचनाविषयक विवेचन है। ध्वनि-परिवर्तन की दृष्टि से मध्यवर्ती अल्पप्राण और महाप्राण व्यंजनों में से २१.६% यथावत् है, १६६% घोष है, ६१.६% का लोप हुआ है ( महाप्राण "ह" में परिवर्तित ) और ०.२% में द्वित्व हुआ है। घोष होनेवाले व्यंजनों में केवल "क" और "प" का समावेश होता है।
उपदेशमाला के प्रकाशित अन्य संस्करणों में मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजन के लुप्त होने पर अवशिष्ट अ या आ स्वर की "य" श्रुति तब होती है जब उसके पूर्व में अ या आ स्वर हो जब कि उपलब्ध प्रतियों
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