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________________ जैन भाषादर्शन की समस्यायें (शोध-प्रबंधसार) –श्रीमती अर्चनारानी पाडेण्य भाषा-दर्शन समकालीन दार्शनिक चिन्तन की एक महत्त्वपूर्ण विधा है। आज का दार्शनिक चिन्तन बहुत कुछ भाषा दर्शन की समस्याओं से जुड़ा हुआ है। सामान्यतया आज के पाश्चात्य दार्शनिक दर्शन के क्षेत्र में इसे अपना मौलिक अवदान मानते हैं। किन्तु भाषादर्शन सम्बन्धी यह चिन्तन भारत में आज से २००० वर्ष पूर्व भी उपस्थित था। भारतीय दर्शन का वैयाकरण सम्प्रदाय और किसी सीमा तक मीमांसक सम्प्रदाय भी, भाषा और शब्द सम्बन्धी विविध समस्याओं को सुलझाने में प्राचीन काल से ही प्रयत्नशील था। उनके चिन्तन का ही यह परिणाम था कि वाक्यपदीय जैसे भाषा दर्शन के प्रौढ़ ग्रन्थ अस्तित्व में आये । न केवल नैयाकरण और मीमांसक भाषा दर्शन की समस्याओं से जूझ रहे थे, अपितु बौद्ध और जैन विचारक भी अपने ढंग से इन समस्याओं को सुलझाने में लगे थे। वैयाकरणों के स्फोटवाद के स्थान पर बौद्धों ने अपोहवाद की स्थापना करके भाषा सम्बन्धी दार्शनिक चिन्तन को एक नई दिशा दी थी। • इस क्षेत्र में जैन दार्शनिक भी पीछे नहीं थे। प्राचीन जैन आगम "प्रज्ञापना सूत्र" में भाषा की उत्पत्ति कैसे होती है ? उसकी व्यापकता क्या है ? भाषायी कथनों का सत्यता से क्या सम्बन्ध है ? सत्यता और असत्यता की दृष्टि से भाषा कितने प्रकार की हो सकती है, इसकी विस्तार से चर्चा उपलब्ध होती है। परवर्ती जैन दार्शनिकों ने स्फोटवाद: अपोहवाद, अभिहितान्वयवाद, अन्विताभिधानवाद, शब्द की नित्यता का प्रश्न, शब्द और अर्थ का सम्बन्ध आदि भाषा दर्शन की समस्याओं को लेकर गहन चिन्तन किया है। प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र तथा तत्त्वार्थ की अनेक टीकाओं में इन सभी प्रश्नों पर विचार सामग्री उपलब्ध होती है। सत्रहवीं शताब्दी में यशोविजय ने भाषारहस्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525005
Book TitleSramana 1991 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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