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( ९१ ) स्वभाव, आचरण एवं कर्तव्यों का विस्तार से उल्लेख किया गया है । इसी प्रकार उत्तराध्ययन का १५वाँ अध्ययन सभिक्खुयं-भिक्षु के आचरण एवं कर्तव्यों से सम्बन्धित है । दोनों में समान रूप से निर्दिष्ट है कि मुनि या संन्यासी कौन हो सकता है ? उसके क्या कर्तव्य हैं। मुनि-संन्यासी लाभ और हानि में समान भाव से स्थिर रहता है तथा भोगों के उपलब्ध रहने पर भी वह उनमें लिप्त नहीं होता। सच्चा संन्यासी वही है जो दूसरों के दोषों की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कहीं चर्चा नहीं करता' । मुनि निःस्पृह तथा समदर्शी होता है; जीवननिर्वाह के लिए जो कुछ भी प्राप्त हो जाय, उसी में सन्तोष करता है,. वह मिताहारी और जितेन्द्रिय होता है । जो साधारण लाभ की इच्छा नहीं करता, अन्न का दोष या गुण बताकर उसकी निन्दा या प्रशंसा नहीं करता, जो किसी उपसर्ग से व्यथित नहीं होता तथा अज्ञातभाव से रहकर आत्मचिन्तन करता है-उसे ही सच्चा भिक्षु या संन्यासी कहा गया है।
भिक्षावृत्ति जैन भिक्ष के लिए अनिवार्य है। जैन ग्रन्थों में भिक्षा कब, क्यों और कैसे ग्रहण करनी चाहिए-इसका विस्तार से उल्लेख प्राप्त होता है। उत्तराध्ययन एवं जैन परम्परा के अन्य ग्रन्थों में दिन के तीसरे प्रहर में भिक्षु को भिक्षा मांगने का निर्देश दिया गया है। शान्ति पर्व में भिक्षा माँगने का जो समय बताया गया है वह जैन परम्परा के पूर्णतः अनुकूल है। शान्ति पर्व में यह बताया गया है कि जब रसोईघर से धुंआ निकलना बन्द हो जाय, अनाज आदि कूटने के लिए मूसल अलग रख दिया जाय, चूल्हे की आग ठण्डी पड़ जाय, घर के लोग भोजन कर चुके हों, बर्तनों का संचार अर्थात् बर्तनों का इधर-उधर ले जाया जाना बन्द हो ।जाय, उस समय संन्यासी/मुनि को भिक्षा मांगनी चाहिए।
इस प्रकार हम देखते हैं कि उत्तराध्ययन के इषुकारीय एवं शान्ति पर्व के पिता-पुत्र सम्वाद एवं इनके बाद के अध्ययनों में कितनी अधिक १. शान्तिपर्व, २७८।३४; उत्तराध्ययन, १५।२ २. वही, २७८।१६; वही, १५।१६ ३. वही, २७८।१०-१३; वही, १५।४,५,१२ ४. विधमे न्यस्तमुसले व्यङ्गारे भुक्तवज्जने ।
अतीतपात्रसंचारे शिक्षां लिप्सेत वै मुनिः ॥ -शान्तिपर्व, २७७।९..
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