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________________ ( ८९ ) जीवन की क्षणिकता के विषय में पिता से वार्तालाप करता है तथा मुनि धर्म अंगीकार करने के लिए उनसे अनुमति मांगता है। इस सन्दर्भ में पिता का उत्तर उसके कर्मकाण्डी पण्डित होने का स्पष्ट प्रमाण है यह सन्दर्भ दोनों ग्रन्थों में समान रूप से प्राप्त है । महाभारत के अनुसार पिता पुत्र को सर्वप्रथम ब्रह्मचर्याश्रम में प्रवेश करने, वेदाध्ययन करने, तदुपरान्त गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर पुत्रोत्पादन करने फिर वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश और अन्त में मुनि ( संन्यासी ) बनने का उपदेश देता है। उत्तराध्ययन में भी महाभारत के सदृश पिता पुत्रों को सर्वप्रथम वेदों का अध्ययन कर कामभोगों का सुख भोगने और अन्त में अपने पुत्रों को घर का दायित्व सौंपकर संन्यासी बनने का उपदेश देता है। यह उपदेश सुनकर पुत्र उनको मृत्यु की यथार्थता समझाते हैं कि मृत्यु किसी के कहने से एक क्षण भी नहीं रुक सकती अतः कल्याण साधन में रत पुरुष को एक क्षण का भी विलम्ब नहीं करना चाहिए। जिस कार्य को कल करना हो, उसे आज ही कर लेना चाहिए क्योंकि मृत्यु कार्य के पूर्ण होने की प्रतीक्षा नहीं करती५ । महाभारत का यह भाव उत्तराध्ययन में यथावत विद्यमान है, इसमें भी लोक को मृत्यु से आहत बताया गया है। दोनों ग्रन्थों में भावों की ही नहीं अपितु भाषा की भी समता दर्शनीय है। अब्भाह्य मि लोगंमि सव्वओ परिवारिए । अमोहाहिं पडन्तीहिं गिहंसि न रइं लभे ॥ उत्तरा० १४/२१ १. उत्तराध्ययन, १४१७ २. अधीत्य वेदान् ब्रह्मचर्येषु पुत्र पुत्रानिच्छेत् पावनाय पितृणाम् । अग्नीनाधाय विधिवच्चेष्टयज्ञो ___ बनं प्रविश्याथ मुनिर्बुभूषेत् ॥ -शान्तिपर्व, २७७१६ ३. अहिज्ज वेए परिविस्स विप्पे, पुत्ते पडिट्ठप्प गिहंसि जाया । भोच्चाण भोए सह इंत्थियाहिं, आरणगा होह मुणी पसत्था । -उत्तरध्ययन, १४।९. ४. शान्ति पर्व, २७७।१० ५. वही, २७७।१३.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525005
Book TitleSramana 1991 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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