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(८८) तत्सम्बद्ध शान्ति पर्व एवं इषुकरीय अध्ययन के विवरणों में न केवल भावों में अपितु भाषा तक में समानता परिलक्षित होती है। कुछ श्लोक तो, यदि उनका छायानुवाद कर दें, पूर्णतया समान प्रतीत होते हैं।
संन्यासाभिलाषी पुत्र को महाभारत में "मोक्षधर्मविचक्षण'१ अर्थात् मोक्षधर्म के ज्ञान में कुशल कहा गया है । पुत्रों के लिए प्रयुक्त विशेषण महाभारत एवं उत्तराध्ययन में लगभग समान हैं। उत्तराध्ययन में पुत्रों को काम-भोगों से अनासक्त, मोक्षाभिलाषी एवं श्रद्धा सम्पन्न कहा गया है। इसी प्रकार पिता के गुणों का वर्णन भी दोनों ग्रन्थों में समान ही हुआ है। महाभारत में पिता को स्वाध्यायपरायण परन्तु मोक्ष धर्म में अकुशल कहा गया है। उत्तराध्ययन में पिता को यज्ञ-यागादि कर्म में संलग्न ब्राह्मण तथा पुरोहित कहा गया है । उसका यज्ञ-यागादि कर्मों में निष्णात होना स्थान-स्थान पर वैदिक कर्म-काण्डों का उदाहरण देते हुए निर्दिष्ट किया गया है। दोनों ग्रन्थों के उद्धरणों से स्पष्ट है कि ब्राह्मण पिता कर्मकाण्ड का प्रकाण्ड पण्डित होते हुए भी मोक्ष मार्ग से अपरिचित है ।
पुत्रों द्वारा संन्यास-धारण करने के लिए आज्ञा मांगने पर पिता के प्रत्युत्तर के प्रसंग विचारणीय हैं। महाभारत में मनुष्यों की आयु के तीव्र गति से क्षीण होते जाने का दृष्टान्त देकर पिता से पुत्र उचित धर्म के पालन का मार्ग पूछता हैं। उत्तराध्ययन में भी पुत्र १ महाभारत, शान्ति पर्व, २७७।३ (प्रका०-गीता प्रेस, गोरखपुर) २. ते कामभोगेसु असज्जमाणा,
माणुस्सएसु जे यावि दिव्वा मोक्खाभिकंखी अभिजायसड्ढा"
-उत्तराध्ययन, १४।६ (स०-साध्वी चन्दना, वीरायतन प्रकाशन, __ आगरा, १९७२). ३. “स्वाध्यायकरणे रतं मोक्षधर्मेष्वकुशलं"
---शान्तिपर्व, २७७।४. ४. "माहणस्स सकम्मसीलस्स पुरोहियस्स" -उत्तराध्ययन, १४।५. ५. शान्ति पर्व, २७७।५
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