________________
इषुकारीय अध्ययन ( उत्तराध्ययन ) एवं शान्तिपव(महाभारत) का पिता-पुत्र
संवाद
डा० अरुण प्रताप सिंह • उत्तराध्ययन, जैनागम साहित्य का एक अति महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। द्वादशांगों में न होते हुए भी अपनी प्राचीनता,विषय-वस्तु एवं कथानक के दृष्टिकोण से उनसे कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। जैन परम्परा में उत्तराध्ययन का वही महत्त्व है जो वैदिक परम्परा में गीता तथा बौद्ध परम्परा में धम्मपद का है। इसमें निहित आध्यात्मिक उपदेशों की शैली सरल एवं सुबोध है एवं इनमें साम्प्रदायिक अभिनिवेशों का पूर्णतया अभाव है । इसमें संकलित उपदेश श्रेष्ठ मानवीय गुणों से युक्त हैं । संन्यास मार्ग के अभिलाषी साधक में किन-किन गुणों/विचारों का होना आवश्यक है, इसका संक्षिप्त पर सम्पूर्ण वर्णन उत्तराध्ययन में निहित है। ____ इसमें कुल ३६ अध्ययन हैं। इसका १४वाँ अध्ययन "इषुकारीय" नाम से प्रसिद्ध है। इषुकार एक नगर एवं वहाँ के राजा का नाम है। यह नाम काल्पनिक प्रतीत होता है क्योंकि इसकी यथार्थता का कोई साक्ष्य हमें प्राप्त नहीं हो सका है। परन्तु इसका कथानक हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है और हमारे विचार का केन्द्र इषुकारीय अध्ययन में वर्णित वैराग्य-तत्पर पुत्रों का अपने पिता के साथ सम्वाद है। इसमें पुत्र तो संन्यास ग्रहण करना चाहते हैं किन्तु पिता उन्हें सांसारिक कार्यों को पूर्ण करने के पश्चात् ही ऐसा करने का उपदेश देते हैं । सामान्यतः संन्यासमार्गी परम्परा के ग्रन्थों में ऐसे कथानकों का होना आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि दृष्टान्तों द्वारा ही अपने मत की पुष्टि की जाती है। आश्चर्य तब होता है जब एक ही कथानक दो भिन्नमार्गी परम्परा के ग्रन्थों में प्राप्त हो । उत्तराध्ययन का कथानक ठीक इसी प्रकार महाभारत के शान्ति पर्व के २७७वें अध्याय में है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org