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प्रक्रिया भी प्राचीनकाल में प्रचलित रही है। अनेक आगमों में तत्सम्बन्धी उल्लेख हैं। श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित 'तिखुत्तो' के पाठ का ही एक परिवर्तित रूप हमें षट्खण्डागम के कर्म अनुयोगाद्वार के २८ वें सूत्र में मिलता है। तुलनात्मक अध्ययन के लिए दोनों पाठ विचारणीय है ( देखें, पाद टिप्पणी )* गुरुवंदन के लिए 'खमासमना' के पाठ की प्रक्रिया उसकी अपेक्षा परवर्तीहै । यद्यपि यह पाठ आवश्यक जैसे अपेक्षाकृत प्राचीन आगम में मिलता है फिर भी इसमें प्रयुक्त क्षमाश्रमण (खमासमणो) शब्द के आधार पर प्रो० ढाकी इसे ५ वीं शती के लगभग का मानते हैं। क्योंकि तब से जैनाचार्यों के लिए 'क्षमाश्रमण' पद का प्रयोग होने लगा था। गुरुवंदन से ही चैत्यों का निर्माण होने परचैत्यवंदन का विकास हुआ। चैत्यवंदन की विधि को लेकर अनेक स्वतंत्र ग्रंथ भी लिखे गये हैं। ___इसी स्तवन एवं वंदन की प्रक्रिया का विकसित रूप जिनपूजा में उपलब्ध होता है, जो कि जैन अनुष्ठान का महत्त्वपूर्ण एवं अपेक्षाकृत प्राचीन अंग है। वस्तुतः वैदिक कर्मकाण्ड की विरोधी जनजातियों एवं भक्तिमार्गी परम्परा में धार्मिक अनुष्ठान के रूप में पूजा-विधि का विकास हुआ था और श्रमण परम्परा में तपस्या और ध्यान का। यक्षपूजा के प्राचीनतम उल्लेख जैनागमों में उपलब्ध हैं। फिर इसी भक्तिमार्गीधारा का प्रभाव जैन और बौद्ध धर्मों पर भी पड़ा और उनमें तप, संयम एवं ध्यान के साथ जिन एवं बुद्ध की पूजा की भावना विकसित हुई। परिणामतः प्रथम स्तूप, चैत्य आदि के रूप में प्रतीक पूजा प्रारम्भ हुई फिर सिद्धायतन (जिन-मन्दिर) आदि बने और बुद्ध एवं जिन प्रतिमा की पूजा होने लगी। फलतः जिन* तिक्खुत्तो आयाहीणं पयाहीणं करेमि वंदामि नमसामि सक्का
रेमि सम्मानेमि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि मत्थयेण वंदामि। (नोट-यह पाठ किंचित् परिवर्तन के साथ अनेक आगमों में
उपलब्ध है।) तमादाहीणं पदाहीणं तिक्खुत्तं तियोणद चदुसिरं वारसावतं त सव्व किरियापणाम ।
-षट्खण्डागम, कर्मअनुयोगद्वार २८ ।
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