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( ४ ) इन षडावश्यकों का सम्बन्ध मुनि जीवन से ही था किन्तु आगे चलकर उनको गृहस्थ - उपासकों के लिए भी आवश्यक माना गया आवश्यक निर्युक्ति में वंदन आदि की विधि एवं दोषों की जो चर्चा है उससे इतना अवश्य लगता है कि क्रमशः इन दैनन्दिन क्रियाओं को भी अनुष्ठानपरक एवं कलात्मक बनाया गया था । यद्यपि आज एक रूढ़ क्रिया के रूप में ही षडावश्यकों को सम्पन्न किया जाता है ।
जहाँ तक गृहस्थ उपासकों के धार्मिक कृत्यों या अनुष्ठानों का प्रश्न हमें उनके सम्बन्ध में भी ध्यान एवं उपोषथ या प्रौषध विधि के प्राचीन उल्लेख उपलब्ध होते हैं । उपासकदशांग में शकडालपुत्र एवं कुण्डकौलिक के द्वारा मध्याह्न में अशोकवन में शिलापट्ट पर बैठकर उत्तरीय वस्त्र एवं आभूषण उतारकर महावीर की धर्मप्रज्ञप्ति की साधना अर्थात् सामायिक एवं ध्यान करने का उल्लेख है ।' बौद्ध त्रिपिटक साहित्य से यह ज्ञात होता है कि निग्रंथ श्रमण अपने उपासकों को ममत्वभाव का विसर्जन कर कुछ समय के लिए समभाव एवं ध्यान की साधना करवाते थे । 10 इसी प्रकार भगवती सूत्र में भोजनोपरान्त अथवा निराहार रहकर श्रावकों के द्वारा प्रौषध करने के उल्लेख मिलते हैं । त्रिपिटक में बौद्धों ने निर्ग्रथों के उपोषथ की आलोचना भी की है । इससे यह बात पुष्ट होती है कि प्रौषध की परम्परा महावीरकालीन तो है ही । " सूत्रकृतांग में महावीर की जो स्तुति उपलब्ध होती है, वह सम्भवतः जैन परम्परा में तीर्थंकरों के स्तवन का प्राचीनतम रूप है । 13 उसके बाद कल्पसूत्र, भगवतीसूत्र एवं राजप्रश्नीय में हमें वीरासन से शक्रस्तव (नमोत्थुणं) का पाठ करने का उल्लेख प्राप्त होता है । 14 दिगम्बर परम्परा में आज वंदन के अवसर पर जो 'नमोsस्तु' कहने की परम्परा है वह इसी 'नमोत्थूणं' का संस्कृत रूप है । दुर्भाग्य से दिगम्बर परम्परा में यह प्राकृत का सम्पूर्ण पाठ सुरक्षित नहीं रह सका । चतुर्विंशतिस्तव का एक रूप आवश्यकसूत्र में उपलब्ध है इसे 'लोगस्स " का पाठ कहते हैं । यह पाठ कुछ परिवर्तन के साथ दिगम्बर परम्परा के ग्रंथ तिलोयपण्णत्ति में भी उपलब्ध है । तीन आवर्ती के द्वारा 'तिवखुत्तो' पाठ से तीर्थंकर, गुरु एवं मुनि-वंदन की
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