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________________ पूजा एवं दान को गृहस्थ का मुख्य कर्तव्य माना गया। दिगम्बर परम्परा में तो गृहस्थ के लिए षडावश्यक के स्थान पर निम्न षट् दैनिक कृत्यों की कल्पना की गयी-जिनपूजा, गुरुसेवा,स्वाध्याय,तप, संयम एवं दान । हमें आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, भगवती आदि प्राचीन आगमों में जिनपूजा की विधि का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। अपेक्षाकृत परवर्ती आगमों-स्थानांग आदि में जिनप्रतिमा एवं जिनमन्दिर (सिद्धायतन) के उल्लेख हैं, किन्तु उनमें पूजा सम्बन्धी किसी अनुष्ठान की चर्चा नहीं है। जबकि राजप्रश्नीय में सूर्याभदेव और ज्ञाताधर्मकथा में द्रौपदी के द्वारा जिनप्रतिमाओं के पूजन के उल्लेख हैं। राजप्रश्नीय के वे अंश जिसमें सूर्याभदेव के द्वारा जिनप्रतिमा-पूजन एवं जिन के समक्ष वाद्य, संगीत, नृत्य, नाटक आदि के उल्लेख हैं-ज्ञाताधर्मकथा से परवर्ती है और गुप्तकाल के पूर्व के नहीं हैं। चाहे राजप्रश्नीय की प्रसेनजित्-सम्बन्धी कथा पुरानी हो, किन्तु सूर्याभदेव सम्बन्धी कथा प्रसंग में जिनमन्दिर के पूर्णतः विकसित स्थापत्य के जो संकेत हैं, वे उसे गुप्तकाल से पूर्व का सिद्ध नहीं करते हैं। फिर भी यह सत्य है कि जिन-पूजा-विधि का इससे विकसित एवं प्राचीन उल्लेख श्वे० परम्परा के आगमसाहित्य में अन्यत्र नहीं हैं। आचार्य कुन्दकुन्द रयणसार में लिखते हैंदाणं पूजा मुक्ख सावयधम्मे ण सावया तेण वि णा। झाणज्झयणं मुक्ख जइ धम्मे ण तं विणा सो वि ॥ अर्थात् गृहस्थ के कर्तव्यों में दान और पूजा मुख्य हैं और यति/श्रमण के कर्तव्यों में ध्यान और स्वाध्याय मुख्य हैं। इस प्रकार पूजा सम्बन्धी अनुष्ठानों को गृहस्थ के कर्तव्य के रूप में प्रधानता मिली। परिणामतः गृहस्थों के लिए अहिंसादि अणुव्रतों का पालन उतना महत्त्वपूर्ण नहीं रह गया जितना पूजा आदि विधि-विधान को सम्पन्न करना। प्रथम तो पूजा को कृतिकर्म (सेवा) का एक रूप माना गया, किन्तु आगे चलकर उसे अतिथिसंविभाग का अंग माना गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525005
Book TitleSramana 1991 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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