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दिगम्बर परम्परा में भी जैन अनुष्ठानों का उल्लेख सर्वप्रथम हमें कुन्दकुन्द रचित दस भक्तियों में एवं मूलाचार के षडावश्यक अध्ययन में मिलता है । जैन शौरसेनी में रचित इन सभी भक्तियों के प्रणेता कुन्दकुन्द हैं-यह कहना कठिन है, फिर भी कुन्दकुन्द के नाम से उपलब्ध भक्तियों में से पाँच पर प्रभाचन्द्र की क्रियाकलाप नामक टीका है। अतःकिसी सीमा तक इन में से कुछ के कर्ता के रूप में कुन्दकुन्द को स्वीकार किया जा सकता है। दिगम्बर परम्परा में संस्कृत भाषा में रचित बारह भक्तियाँ भी मिलती हैं। इन सब भक्तियों में मुख्यतः पंचपरमेष्ठी-तीर्थंकर, सिद्ध, आचार्य, मुनि एवं श्रुत आदि की स्तुतियाँ हैं । श्वे० परम्परा में जिस प्रकार नमोत्थुणं (शक्रस्तव), लोगस्स (चतुर्विंशतिस्तव), चैत्यवंदन आदि उपलब्ध हैं। उसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में भी ये भक्तियाँ उपलब्ध हैं। इनके आधार पर ऐसा लगता है कि प्राचीनकाल में जिनप्रतिमाओं के सम्मुख केवल स्तवन आदि करने को परम्परा रही होगी। वैसे मथुरा से प्राप्त कुषाणकालीन पुरातत्त्वीय अवशेषों में कमल के द्वारा जिनप्रतिमा के अर्चन के प्रमाण हैं-इसकी पुष्टि राजप्रश्नीय से भी होती है । यद्यपि भावपूजा के रूप में स्तवन की यह परम्परा-जो कि जैन अनुष्ठान विधि का सरलतम एवं प्राचीनरूप है, आज भी निर्विवाद रूप से चली आ रही है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराएँ मुनियों के लिए केवल भावपूजा अर्थात् स्तवन का ही विधान करती हैं। द्रव्यपूजा के सम्बन्ध में राजप्रश्नीय में वणित सूर्याभदेव द्वारा की जाने वाली पूजा-विधि आज भी (श्वे० परम्परा में) उसी रूप में प्रचलित है। उसमें प्रतिमा के प्रमार्जन, स्नान, अंगप्रोच्छन, गंध-विलेपन, गंधमाल्य, वस्त्र आदि के अर्पण के उल्लेख हैं। राजप्रश्नीय में उल्लिखित पूजाविधि भी जैन परम्परा में एकदम विकसित नहीं हुई है। स्तवन से चैत्यवंदन और चैत्यवंदन से पुष्प अर्चा प्रारम्भ हुई होगी। यह भी सम्भव है कि जिनमन्दिरों और जिनबिम्बों के निर्माण के साथ पुष्पपूजा प्रचलित हुई होगी। फिर क्रमशः पूजा की सामग्री में वृद्धि होती गई और अष्टद्रव्यों से पूजा होने लगी। डॉ० नेमिचन्द शास्त्री के शब्दों में-- "पूजन सामग्री विकास की एक सुनिश्चित परम्परा
और क्रमशः पूजा डॉ. नेमिचन्द भारत
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