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( ७४ ) अतः प्रकृति शब्द से उनका तात्पर्य 'जन्मदातृ' नहीं परन्तु समझाने के लिए 'आधार' ही फलित होता है।
(२) शौरसेनी में थ का ध होने के लिए एक सूत्र दिया हैथो धः - ८.४.२६७ फिर बाद में इह के ह और द्वि० पु० ब० व० के वर्तमान काल के प्रत्यय ह का ध होना बतलाया है।
इह हधोः हस्य ८ ४.२६८ - उदाहरण हो ध
यह तो संस्कृत ‘भ व थ' का हो ध है अर्थात् थ का ही ध बना है। इसको संस्कृत से न समझाकर प्राकृत से ही समझाया है-अर्थात् संस्कृत में से प्राकृत की उत्पत्ति की उनकी मान्यता होती तो क्या वे ऐसा करते?
(३) इह में से इध हुआ तो यह भी सही नहीं है मूल तो इध ही था उसमें से ही संस्कृत में इह बना है।
इस सन्दर्भ में पू० आ० श्री. हेमचन्द्राचार्य द्वारा प्रयुक्त 'प्रकृति' शब्द का अर्थ यही होता है कि प्राकृत भाषा को समझाने के लिए (अर्थात् तद्भव अंश के लिए) संस्कृत का आश्रय लिया जा रहा है, उसे आधार मानकर समझाया जा रहा है इससे अलग ऐसा अर्थ नहीं कि संस्कृत प्राकृत की जननी है या उसमें से उसकी उत्पत्ति हुई है।
भरतमुनि ने इसके अलावा प्राकृत को नाटकों में संस्कृत के समान ही दर्जा दिया है। उनके द्वारा यह कहा जाना कि नाटकों में दो ही पाठ्य भाषाएँ होती हैं संस्कृत के बारे में तो कह दिया अब प्राकृत के बारे में कहता हूँ
एवं तु संस्कृतं पाठ्यं मया प्रोक्तं समासतः ।
प्राकतस्य नू पाठ्यस्य संप्रवक्ष्यामि लक्षणम् ॥ (१७.१) जिसे (प्राकृतको) अलग-अलग अवस्थाओं में अपनायी जानी चाहिए।
विज्ञेयं प्राकृतं पाठ्यं नानावस्थान्तरात्मकं ११-१७.२ यही प्राचीन स्थिति है जब संस्कृत के साथ प्राकृत भाषा को भी समान रूप में गौरव का पद प्राप्त था।
विभागाध्यक्ष, प्राकृत एवं पालि गुजरात विश्वविद्यालय, गुजरात.
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