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( ७३ ) ( तत्सम ), विभ्रष्ट ( तद्भव ) और देशी शब्द होते हैं । यह परिवर्तन ( विपर्यस्त ) युक्त होती है (१७.३) ।
इस कथन के अनुसार एक भाषा संस्कारगुण से वर्जित है (प्राकृत) अर्थात् दूसरी भाषा संस्कार गुण वाली (संस्कृत) है।
इससे यह प्रश्न उठता है कि जिसको-संस्कारयुक्त बनाया गया, जिसे संस्कार दिया गया वह भाषा कौन सी है ? उत्तर होगा जो संस्कार रहित थी उसे ही संस्कारयुक्त बनाया गया अर्थात् प्राकृत को यानि प्रकृति को संस्कृत बनाया गया तब कौन सी भाषा पहले और कौन सी बाद में। स्पष्ट है कि जो प्रकृति की भाषा स्वाभाविक लोकभाषा, जन-भाषा थी उसे ही संस्कार देकर संस्कृत बनायी गयी। यहाँ पर भाषा के किसी नाम विशेष से तात्पर्य नहीं है सिर्फ समझना इतना ही है कि असंस्कार वाली भाषा में से संस्कार वाली भाषा बनी।
संसार की सभी भाषाओं पर यही नियम लागू होता है। शिष्ट भाषा का उद्भव किसी एक लोक-भाषा से ही होता है और बाद में दोनों में परस्पर आदान-प्रदान होता रहता है।
यदि संस्कृत ही योनि हो तो फिर जो नियम पू० हेमचन्द्राचार्य ने बनाये हैं वे उल्टे साबित नहीं होते हैं क्या ? (१) सूत्र-८३.१५८ वृत्ति... "अकारस्य स्थाने एकारो वा भवति ।
जैसे-हसइ का हसेइ, सुणउ का सुणेउ। फिर आगे वृत्ति में कहा गया है कि
'क्वचिदात्वमणि' अर्थात् कहीं-कहीं अ का आ हो जाता है।
उदाहरणार्थ-सुणाउ ( श्रुणातु ) इससे यह फलित होता है कि सुणउ से सुणाउ हुआ।
वास्तव में तो संस्कृत में जो 'आ' है उसके स्थान पर ही अ और ए प्राकृत में प्रचलित था। श्रुणातु = सुणाउ, सुण उ, सुणेउ।
यहाँ पर पू० हेमचन्द्र ने समझाने की जो पद्धति अपनायी है उससे संस्कृत को प्राकृत की योनि मानकर स्रोत के रूप में उसका अर्थ उचित नहीं ठहरता है।
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