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( ६९ ) उनका कर्ता भोक्ता नहीं होता।' पुद्गल जन्य कर्मो का भोक्ता होते हुये भी ज्ञानी आत्मा उसी प्रकार कर्मों या तज्जन्य फलों से नहीं बंधता है जिस प्रकार वैद्य विष का उपभोग करता हुआ भी मरण को प्राप्त नहीं होता।
इस प्रकार हम देखते हैं कि समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने अशुद्ध निश्चय एवं व्यवहारनय की दृष्टि से आत्मा को कर्ता-भोक्ता एवं शुद्धनिश्चय नय की दृष्टि से अकर्ता व अभोक्ता कहा है। कुन्दकुन्दाचार्य का मुख्य प्रयोजन संसारी जीवों के सम्मुख आत्मा के शुद्धस्वरूप को इस प्रकार प्रस्तुत करना था जिसके द्वारा जीव अनन्तगुणात्मक विशुद्ध आत्मा के स्वरूप को जान सके । इसीलिए उन्होंने आत्मस्वरूप को समझाने के लिए निश्चय एवं व्यवहार दोनों नय का सहारा लिया। जहाँ कुन्दकन्दाचार्य ने व्यवहार नय के माध्यम से आत्मा की संसारी अवस्था का निरूपण किया है वहीं निश्चयनय के माध्यम से आत्मद्रव्य को पूर्णतः विशुद्ध तथा समस्त पर पदार्थों से पूर्णतः असम्बद्ध निर्दिष्ट किया है । शुद्धावस्था में आत्मा स्वचतुष्टय में लीन किसी कार्य का कर्ता-भोक्ता न होकर ज्ञाता-द्रष्टा मात्र होता है। व्यवहार नय के माध्यम से कुन्दकुन्दाचार्य का उद्देश्य यह दर्शाना है कि यद्यपि संसारी आत्मा की अशुद्धावस्था जिसमें वह समस्त कर्मों का कर्ताभोक्ता है, एक वास्तविकता है लेकिन यह आत्मा के वास्तविक स्वरूप के प्रतिकूल है, क्योंकि यह आगन्तुक है इसीलिए हेय भी है। परन्तु उस विशुद्धावस्था को प्राप्त करने के लिये आत्मा की अशुद्धावस्था का ज्ञान उतना ही आवश्यक है जितना शुद्धावस्था का। उन्होंने निश्चयनय द्वारा आत्मा की शुद्धावस्था को उपादेय बताया है। पद्मप्रभु ने नय विवक्षा से आत्मा के कर्तृत्व-भोक्तृत्व भाव को स्पष्ट करते हुये कहा है कि 'निकटवर्ती अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय की अपेक्षा १. समयसार-३१४-२० २. वही, १९५ ३. निश्चय नय की दष्टि से आत्मा के दो ही भेद हैं-मुक्त एवं संसारी
इन दोनों भेदों में ही भव्य, अभव्य, अशुभोपयोगी, शुद्धोपयोगी सबका समावेश हो जाता है, मोक्षपाहुड ५ में आचार्य ने बहिरात्मा, अन्तरात्मा एवं परमात्मा तीन भेद किए हैं।
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