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________________ (६८) नहीं है लेकिन बुद्धि में प्रतिबिम्बित सुख-दुःख की छाया पुरुष में पड़ने लगती है यही उसका भोग है। उनके अनुसार भोगक्रिया वस्तुतः बुद्धिगत है परन्तु बुद्धि के प्रतिसंवेदी पुरुष' में भोग का उपचार होता है, जिसप्रकार स्फटिक मणि लालफल के सान्निध्य के कारण लाल एवं पीले फूल के संसर्ग के कारण पीली दिखाई देती है एवं फूल के हटजाने पर अपने स्वच्छ स्वरूप में प्रतीत होने लगती है उसी प्रकार चेतन पुरुष बुद्धि में प्रतिफलित होता है । जैनदार्शनिक सांख्य के उक्त मत से सहमत नहीं हैं। चूंकि पुरुष अमूर्त है इसलिए एक तो उसका प्रतिबिम्ब नहीं हो सकता है, दूसरे पुरुष का प्रतिबिम्ब बुद्धि में पड़ने से पुरुष को यदि भोक्ता माना जाय तो मुक्त पुरुष को भी भोक्ता मानना पड़ेगा क्योंकि उसका प्रतिबिम्ब भी बुद्धि में पड़ सकता है । यदि सांख्य भुक्त पुरुष को भोक्ता न स्वीकार करे तो तात्पर्यतः पुरुष ने अपना भोक्तृत्व स्वभाव छोड़ दिया है और ऐसा मानने पर आत्मा परिणामी हो जायेगा। अतः आत्मा उपचार रूप से भोक्ता नहीं बल्कि वह भोक्तत्व के अर्थ में भोक्ता है, समयसार के अनुसार जीव का कर्म एवं कर्मफलादि के साथ निमित्त-नैमित्तिक रूपेण सम्बन्ध ही कर्ताकर्मभाव अथवा भोक्ता भोग्य व्यवहार है। आत्मा के अभोक्तृत्व की व्याख्या करते हुए समयसार में आचार्य ने कहा है कि प्रकृति के स्वभाव में स्थित होकर ही कर्मफल का भोक्ता है इसके विपरीत ज्ञानी जीव उदीयमान कर्मफल का ज्ञाता होता है भोक्ता नहीं । वह अनेक प्रकार के मधुर, कटु, शुभाशुभ कर्मों के फल का ज्ञाता होते हुए भी अभोक्ता कहलाता है । जिस प्रकार नेत्र विभिन्न पदार्थों को देखता मात्र है, उनका कर्ता भोक्ता नहीं होता उसी प्रकार आत्मा बंध तथा मोक्ष को कर्मोदय एवं निर्जरा को जानता मात्र है, १. व्यासभाष्य-पृ० २१४ २. कुसुमवच्यमणि : । सां० सू• २१३५ ३. समयसार-३४५-३४८ ४. भोक्तृत्वं न स्वभावोऽस्य स्मृत : कर्तृत्व वच्चितः । अज्ञानादेव भोक्तायं । तदभावावेदक : । समयसार-आत्म० टी० ९६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525005
Book TitleSramana 1991 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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