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(७०) आत्मा द्रव्य कर्म का कर्ता व तज्जन्यफलोपभोक्ता है। अशुद्ध निश्चय की अपेक्षा समस्त मोह, राग-द्वेषरूप भावकर्मों का कर्ता है तथा उन्हीं का भोक्ता है। उपचरित असद्भूत व्यवहार नय से वह घटपटादि का कर्ता व भोक्ता है। निश्चय नय की दृष्टि से वह कर्ता-कर्म से परे एक मात्र ज्ञायक भाव एवं एक टङ्कोत्कीर्ण है एवं शुद्ध है । वे आचार्यशंकर की तरह आत्मा की अशुद्धावस्था को मिथ्या न मानते हुये आत्मा की संसारी अवस्था को एक वास्तविकता के रूप में स्वीकार करने से इन्कार नहीं करते । वे आत्मा के ज्ञाता द्रष्टापक्ष पर बल देते समय सांख्य के निकट व शुद्ध निश्चय नय पर बल देते समय वेदान्त के निकट खड़े दिखाई देते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द की व्यापक दृष्टि जैनदर्शन की परिधि में रहकर भी जैनेतर दर्शनों की परिधि को छू लेती है जो इस बात की सूचक है कि 'एक सत् विप्राबहुधावदन्ति' एवं जिज्ञासु केवलमयं विदुषां विवादः' की घोषणाएं सत्य हैं ।
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