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(६१) दुःख का पात्र बनता है। नियमसार में भी आचार्य ने कहा है कि निश्चय नय से आत्मा जन्म, जरा-मरण एवं उत्कृष्ट कर्मों से रहित, शुद्ध ज्ञान, दर्शन, सुखवीर्य स्वभाव वाला, नित्य अविचल रूप है।' अतः निश्चय नय से आत्मा चैतन्य उपयोग स्वरूप,२ स्वयंभू, ध्रुव, अमूर्तिक, सिद्ध अनादि घन अतीन्द्रिय, निर्विकल्प एवं शब्दातीत है। समस्त षटकारचक्र की प्रक्रिया भेद दृष्टि या व्यवहार नय से है अभेद दृष्टि में इसका अस्तित्व ही नहीं है। ___ व्यवहार नय की दृष्टि से आचार्य ने अशुद्ध संसारी आत्मा का विवेचन किया है । इस दृष्टि से अध्यवसाय आदि कर्म से विकृत भावों को आत्मा कहा है । जीव के एकेन्द्रियादि भेद, गुणस्थान, जीव समास एवं कर्म के संयोग से उत्पन्न गौरादि वर्ण तथा जरादि अवस्थाएँ और नर-नारी आदि पर्यायें अशुद्ध आत्मा की होती हैं । व्यवहार नय दृष्टि से ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र आत्मा के कहलाते हैं । आत्मा चैतन्य स्वरूप, प्रभुकर्ता, देहप्रमाण एवं कर्मसंयुक्त है।' व्यवहार नय से आत्मा शुभ-अशुभ कर्मों का कर्ता एवं सुख-दुखादि फलों का भोक्ता है। व्यवहार से ही जीव व शरीर को एक समझा जाता है निश्चय नय से जीव व शरीर कभी एक नहीं हो सकते । शरीर के साथ आत्मा का एक क्षेत्रावगाह होने से शरीर को आत्मा कहने का व्यवहार होता है जैसे-चाँदी व सोने को गला देने पर एक पिण्ड हो जाता है पर वस्तुतः दोनों अलग होते हैं, उसी प्रकार आत्मा और शरीर इन दोनों के एक क्षेत्र में अवस्थित होने से दोनों की जो अवस्थायें हैं यद्यपि भिन्न हैं तथापि उनमें एकपन का व्यवहार होने लगता है। इस प्रकार व्यवहार नय से आत्मा शुभ-अशुभ कर्मों का कर्ता एवं सुखादि फलों का भोक्ता है।
१. नियमसार १७५-७८ २. पंचास्तिकाय १६; १०९, १२४, प्रवचनसार ३५, भावपाहुड़ ६२,
सर्वार्थसिद्धि २१८ ३. समयसार ५६-६७ ४. पंचास्तिकाय--२७ सम्पा० मनोहर लाल परमश्रुत प्रभावक मंडल,
बम्बई १९०४
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