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(६०) बताया है कि आत्मा क्या है ? और निषेधात्मक पद्धति में बताया है कि बौद्ध दर्शन की भाँति पुद्गल उसकी पर्याय तथा अन्य द्रव्य आत्मा नहीं हैं।
निश्चय तथा व्यवहार नय के माध्यम से आत्मा का विवेचन करते हुये आचार्य ने कहा है कि –'निश्चय नय के अनुसार आत्मा चैतन्यस्वरूप तथा एक है, वह बंधविहीन, निरपेक्ष, स्वाश्रित, अचल निस्संग, ज्ञायक एवं ज्योतिमात्र है।' निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा न प्रमत्त है न अप्रमत्त है और न ज्ञानदर्शनचारित्र स्वरूप है। वह तो एकमात्र ज्ञायक है । वह अशेष द्रव्यान्तरों से तथा उसके निमित्त से होने वाले पर्यायों से भिन्न शुद्ध द्रव्य है । आत्मा अनन्य शुद्ध एवं उपयोग स्वरूप है । वह रस, रूप और गन्धरहित, अव्यक्त चैतन्यगुण युक्त, शब्दरहित चक्षु इन्द्रिय आदि से अगोचर अलिंग एवं पुद्गलाकार से रहित है। वह शरीर संस्थान, संहनन, राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, वर्ग, वर्गणा, अध्यवसाय, अनुभाग, योग, बंध, उदय, मार्गणा, स्थितबंध, संक्लेश स्थान से रहित है।३ आत्मा निर्ग्रन्थ, वीतराग व निःशल्य है। परमात्मप्रकाश में शुद्ध आत्मा के स्वरूप को बताते हुए कहा गया है कि 'न मैं मार्गणा स्थान हूँ, न गुणस्थान हूं, न जीवसमास हूँ, न बालक-बृद्ध एवं युवावस्था रूप हूँ। समयसार में आचार्य ने कहा है कि 'निश्चय से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन ज्ञानमय एवं सदाकाल अरूपी हूँ, अन्य परद्रव्य परमाणुमात्र भी मेरा कुछ नहीं है। निश्चय नय से यह आत्मा अनादिकाल से अप्रतिबुद्ध हो रहा है, इसी अप्रतिबुद्धता के कारण वह 'स्व' और 'पर' के भेद से अनभिज्ञ है। आत्मा है तो आत्मा में ही परन्तु अज्ञानी उसे शरीरादि पर पदार्थों में खोजकर १. समयसार गा० १ :-१५ २. ण वि होदि अपमत्तो पा मत्तो जाणओ दु जो भावो ।
एवं भणंति शुद्धं णाओ जो सो उ सो चेव ।। समयसार ६ ३. समयसार ५०-५५, नियमसार ३।३८-४६, ५०७८ एवं ८० ४. नियमसार ३१४४, ४८ ५. परमात्मप्रकाश गाथा ९१ योगिन्दु सम्पा० उपाध्ये, ए० एन०, श्रीमद्
राजचन्द्र आश्रम, अगास १९६० ६. समयसार ७८
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