SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ५८ ) समय कहलाता है । जयसेनाचार्य ने भी 'सम्यग् अयः बोधो यस्य भवति स समयः आत्मा' अथवा 'समं एकभावेनायनं गमनं समयः ' इस व्युत्पत्ति के अनुसार समय का अर्थ आत्मा किया है । स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द ने निर्मल आत्मा को 'समय' कहा है – 'समयो खलु णिम्मलो अप्पा''। अतः समयसार का अर्थ है त्रैकालिक शुद्ध स्वभाव अथवा सिद्धपर्याय आत्मा । दूसरे शब्दों में आत्मा की शुद्धावस्था ही समयसार है एवं इसी शुद्धावस्था का विवेचन इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य है । आत्मा की अवधारणा जैनदर्शन में प्रमुख एवं मौलिक है । जैनदर्शन में आत्मा की सिद्धि प्रत्यक्ष और अनुमानादि सबल अकाट्य प्रमाणों द्वारा की गई है । श्वेताम्बर आगम आचारांगादि में यद्यपि स्वतन्त्र रूप से तर्कमूलक आत्मास्तित्व साधक युक्तियाँ नहीं हैं फिर भी अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिनसे आत्मास्तित्व पर प्रकाश पड़ता है । आचारांग के प्रथमश्रुतस्कन्ध में कहा गया है कि 'जो भवान्तर में दिशा - विदिशा में घूमता रहता है वह "मैं" हूँ । यहाँ "मैं" आत्मा के लिये आया है । दिगम्बर आम्नाय के षट्षण्डागम में आत्मा का विवेचन है किन्तु आत्मास्तित्व साधक स्वतन्त्र तर्कों का अभाव है । दिगम्बर आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने 'समयसार' में आत्मा का विशद विवेचन किया है । ३ IND आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में आचार्य कुन्दकुन्द का मत है कि आत्मा स्वतः सिद्ध है । अपने अस्तित्व का ज्ञान प्रत्येक जीव को सदैव रहता है १. २. 'पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीवस्सदि जो हि जीविदो पुवं । सो जीवो ते पाणा पोग्गल दव्वेहिं णिवन्ता || जो इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास इन चार प्राणों से जीता समयसार तात्पर्यवृत्ति पृ० ५ । रयणसार- कुन्दकुन्दाचार्य, सम्पा० शास्त्री, देवेन्द्रकुमार गाथा १५३ पृ० १९४ ३. आचारांग १।१।१।४ ४. प्रवचनसार गाथा २।५५ पृ० १८९ सम्पा० ए० एन० उपाध्ये, श्रीमद् राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला, अगास १९६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525005
Book TitleSramana 1991 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy