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समय कहलाता है । जयसेनाचार्य ने भी 'सम्यग् अयः बोधो यस्य भवति स समयः आत्मा' अथवा 'समं एकभावेनायनं गमनं समयः ' इस व्युत्पत्ति के अनुसार समय का अर्थ आत्मा किया है । स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द ने निर्मल आत्मा को 'समय' कहा है – 'समयो खलु णिम्मलो अप्पा''। अतः समयसार का अर्थ है त्रैकालिक शुद्ध स्वभाव अथवा सिद्धपर्याय आत्मा । दूसरे शब्दों में आत्मा की शुद्धावस्था ही समयसार है एवं इसी शुद्धावस्था का विवेचन इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य है ।
आत्मा की अवधारणा जैनदर्शन में प्रमुख एवं मौलिक है । जैनदर्शन में आत्मा की सिद्धि प्रत्यक्ष और अनुमानादि सबल अकाट्य प्रमाणों द्वारा की गई है । श्वेताम्बर आगम आचारांगादि में यद्यपि स्वतन्त्र रूप से तर्कमूलक आत्मास्तित्व साधक युक्तियाँ नहीं हैं फिर भी अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिनसे आत्मास्तित्व पर प्रकाश पड़ता है । आचारांग के प्रथमश्रुतस्कन्ध में कहा गया है कि 'जो भवान्तर में दिशा - विदिशा में घूमता रहता है वह "मैं" हूँ । यहाँ "मैं" आत्मा के लिये आया है । दिगम्बर आम्नाय के षट्षण्डागम में आत्मा का विवेचन है किन्तु आत्मास्तित्व साधक स्वतन्त्र तर्कों का अभाव है । दिगम्बर आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने 'समयसार' में आत्मा का विशद विवेचन किया है ।
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IND
आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में आचार्य कुन्दकुन्द का मत है कि आत्मा स्वतः सिद्ध है । अपने अस्तित्व का ज्ञान प्रत्येक जीव को सदैव रहता है
१.
२.
'पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीवस्सदि जो हि जीविदो पुवं । सो जीवो ते पाणा पोग्गल दव्वेहिं णिवन्ता ||
जो इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास इन चार प्राणों से जीता
समयसार तात्पर्यवृत्ति पृ० ५ ।
रयणसार- कुन्दकुन्दाचार्य, सम्पा० शास्त्री, देवेन्द्रकुमार गाथा १५३ पृ० १९४
३. आचारांग १।१।१।४
४. प्रवचनसार गाथा २।५५ पृ० १८९ सम्पा० ए० एन० उपाध्ये, श्रीमद्
राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला, अगास १९६४
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