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( ५३ ) आचारांग दोनों का कथन सत्य मानकर इनके परस्पर विरोध के शमन के रूप में गर्भान्तरण की घटना को आगम में स्थान दिया।'
श्वेताम्बर परम्परा में मान्य अंग शास्त्र वीरनिर्वाण से ९८० वर्ष पश्चात् (विक्रमाब्द ५वीं शताब्दी में देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में ताड़पत्रों पर लिपिबद्ध हुए। हालाँकि अंग साहित्य का अस्तित्व इसके पूर्व भी (थोड़े परिवर्तन के साथ) मौजूद था। अंग साहित्य के पश्चात् ८ या ९वीं शताब्दी के आवश्यक नियुक्ति तथा भाष्य में गर्भान्तरण की घटना संक्षिप्त रूप में है । तात्पर्य यह कि महावीर के जीवन से सम्बद्ध अधिक से अधिक वृत्तान्त को उस समय तक के रचित साहित्य का दोहन करके आचार्य हेमचन्द्र (१२वीं शताब्दी) ने अपनी कवित्व शक्ति, कल्पना शक्ति का भरपूर उपयोग करके स्वरचित त्रिषष्टि शलाकापुरुष ग्रन्थ में समाविष्ट किया । ऐसा लगता है कि आचार्य के सम्मुख जैन साहित्य के साथ भागवत पुराण में वर्णित वासुदेव कृष्ण का जीवन चरित्र तथा घटनायें रहीं। निष्कर्ष यह है कि अंग साहित्य से लेकर १२वीं शताब्दी तक महावीर के जीवन की घटनाओं में रंग भरता गया और उसको अलौकिक घटना से भरपूर कर दिया गया । __ निस्सन्देह कथा लेखक अपने समकालीन या पूर्व के साहित्य की एकदम उपेक्षा नहीं कर सकता। एक दूसरे पर प्रभाव पड़ना अवश्यंभावी है । आचारांग तथा भगवती सूत्र में उपरोक्त परस्पर विरोधी विवरणों में सामञ्जस्य बिठाने के प्रयत्न में वृत्तांत में असंगत घटना को शामिल किया गया। प्राणि-जगत् में किसी की दो मातायें होना असंभव है । अतः आश्चर्यजनक घटना को विश्वसनीयता प्रदान करने के लिए हरिणेगमेषी देव का सहारा लिया गया, जैसा कि ऊपर जिक्र किया गया है। आचार्य हेमचन्द्र ने भागवत पुराण में वर्णित कृष्ण जीवन की अलौकिक घटना को सामने रखकर कवित्व शक्ति का भरपूर उपयोग कर महावीर के जीवन को अलौकिक घटना से भर दिया । १. दर्शन और चिंतन खण्ड २, गुजरात विद्यापीठ अहमदाबाद, पृ० ३७ २. चार तीर्थङ्कर पृ० ७५-७६, पा० वि० शो० सं०, वाराणसी द्वि० सं०-१९८९ । ३. वही, पृ० ५९
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