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( ५२ ) कहा जाता है कि तीर्थंकर महावीर का जीव स्वर्ग से च्युत होकर देवानंदा ब्राह्मणी के गर्भ में आषाढ़ शुक्ल ६ को आया तथा ८२ दिन तक ब्राह्मणी के गर्भ में रहा किन्तु ८३ वें दिन कथाकार के अनुसार देव ने देवानंदा के गर्भाशय से भ्रूण निकालकर माता त्रिशला के गर्भाशय में स्थापित कर दिया। कथाकार के अनुसार तीर्थंकर का जन्म क्षत्रिय-कुल में होता रहा है, इसी कारण यह गर्भ-परिवर्तन कराया गया । यदि इस पौराणिक मिथ को सत्य मान भी लिया जाये तो भी वास्तविक कुल ब्राह्मण ही होता है । प्राणि-जगत् में मनुष्य गर्भज प्राणी है गर्भ-स्थानान्तरण के पश्चात् स्वप्न-दर्शन, नैमित्तिकों से स्वप्न-फल, उपयुक्त समय पर जन्म, सब कुछ राजा सिद्धार्थ के यहां हुआ जो क्षत्रिय थे। गर्भावतरण के पूर्व की घटना सब कुछ सार्वजनिक नहीं थी किन्तु स्वप्न-फल से लेकर घटना सार्वजनिक थी। क्योंकि राजा सिद्धार्थ की पत्नी त्रिशला वैशालीगण के अधिपति महाराजा चेटक की बहिन थी जो विदेहवंशीय थे, इसी कारण उसे विदेहदत्ता तथा तीर्थंकर महावीर को विदेहदत्ता के पुत्र विदेह निवासी राजकुमार वैशालीक के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त हुई। भद्रबाहुकृत कल्पसूत्र में उल्लेख है इसी कारण भगवान् का जन्म क्षत्रियकुल में होना प्रसिद्धि पा गया।
उपरोक्त भगवती सूत्र के ९ वें शतक के कथन के पूर्व इसी महत्त्वपूर्ण शास्त्र में ही देव में गर्भ-परिवर्तन की क्षमता का कथन है। किन्तु वहाँ महावीर का नाम निर्दिष्ट नहीं है। भगवती सूत्र के टीकाकार आचार्य अभयदेव ने कल्पना की है कि यह उल्लेख भगवान् महावीर से सम्बन्धित है क्योंकि उनका गर्भ परिवर्तन हुआ था। हालाकि गर्भसक्रमण की घटना आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के १५वें अध्ययन (भावना चूलिका) में है। इसकी रचना का काल भद्रबाहु का काल (महावीर निर्वाण से २०० वर्ष पश्चात्) माना जाता है। स्थिति यह हुई कि भगवान् का क्षत्रिय-पुत्र होने का कथन (आचारांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कंध) में तथा इसके विपरीत देवानंदा के माता होने का कथन (जो परस्पर भिन्न थे) भगवती सूत्र में सुरक्षित रहे। वीरनिर्वाण के चार शताब्दी पश्चात् आगम प्रामाण्य का प्रश्न उपस्थित हुआ तो एक घटक दिगम्बर परम्परा ने आचारांग सूत्र का कथन ही सत्य माना तथा दूसरी श्वेताम्बर और यापनीय परम्परा ने भगवतीसूत्र और
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