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धान रहना है। अगर कोई भी साधु या साध्वी श्रमणाचार के विपरीत आचरण करता पाया जाये तो समाज के प्रबुद्ध श्रावक का कर्तव्य है कि ऐसे व्यक्ति को उचित बोध प्रदान करें ताकि हमारे गौरवशाली इतिहास को अक्षुण्ण रखा जा सके। ___ साधुओं को भी चाहिए कि वे पूर्वाग्रह व हठमिता को छोड़कर धर्म को वैज्ञानिक व तार्किक शैली से समझकर प्रस्तुत करें। इस भौतिकतावादी युग में, विज्ञान के चमत्कारों और उच्च शिक्षा के समय केवल आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, स्वर्ग-नरक कहने से ही कार्य नहीं चलेगा, इन सब की तार्किक व मनोवैज्ञानिक ढंग से समाज के सामने प्रस्तुतीकरण की आवश्यकता है। युवाओं का समाज एवं धर्म से पूर्णरूपेण नहीं जुड़ पाने का मेरी समझ में यही एकमात्र कारण है कि हम अपनी सभ्यता, संस्कृति, धर्म और दर्शन को सही ढंग से प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं ।
मेरा इस प्रकार वर्तमान स्थिति को लिखने का एक मात्र यही दर्द है कि हमारा युवा क्यों समाज के सम्मुख नहीं आता, या यों कहूँ कि उसे क्यों आने नहीं दिया जाता है। युवकों के सक्रिय हुए बिना समाज अधूरा है, निर्बल है. अशक्त है।
यह विचार किसी पर आक्षेप या व्यामोह के परिचायक नहीं का है। युवा होने एवं जैन धर्म-दर्शन पर कार्य करते हुए जो अनुभव होते हैं उन्हें लेकर ही इन लेखों के माध्यम से मैं आप तक पहुँचता हूँ, और यह आशा करता हूँ कि इन भावनाओं के अनुरूप मेरे युवा मित्र हमारे साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलेंगे।
शोध अधिकारी आगम अहिंसा समता एवं प्राकृत संस्थान उदयपुर (राजस्थान)
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