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( ४९ ) का त्याग करते हैं । सभी अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थितियों में समता युक्त बने रहते हैं, स्वयं वीतराग की वाणी के अनुसार आचरण करते हैं और दूसरों को भी उनके अनुसार आचरण करने का उपदेश देते हैं । पाँच समिति, तीन गुप्ति के आराधक होते हैं, आदर, सत्कार, वन्दन, निन्दा, प्रशंसा से प्रभावित नहीं होते हैं, मंत्र-तंत्र आदि विद्याओं के जानकार होते हुए भी उनका उपयोग नहीं करते हैं, बाईस परीषहों को जीतते हैं और ५२ अनाचारों से बचकर संयमजीवन का निर्वाह करते हैं।
परन्तु वर्तमान में समाज की प्रबुद्ध एवं युवा पीढ़ी जब इन आचरणों के विपरीत किया करते हुए कुछ वेशधारी साधुओं को देखती है, तो उसे समग्र साधुओं पर संदेह होने लगता है। अनेक सम्प्रदायों में विभक्त, एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करने वाले, अनेक दुराचारों में लिप्त, समाज को गुमराह कर चलने वाले, आचरण और संयम में शिथिल अज्ञानी अशिक्षित आदि कुछ ऐसे जैन श्रमण हैं, जो सम्पूर्ण श्रमण संस्था को कलंकित करते हैं परन्तु कुछेक व्यक्तियों के आचरण व व्यवहार से समग्र साधु-समाज का मूल्यांकन करना भी उचित नहीं है ।
यह बात सही है कि साधु, समाज के व्यक्तियों के सहयोग से जीवनयापन करता है इसलिए शास्त्रों में गृहस्थों को साधुओं के मातापिता की संज्ञा दी गई है। परन्तु उनकी यह आवश्यकतापूर्ति समाज व्यर्थ में नहीं करता है। साधु अपने ज्ञान और आचरण द्वारा स्वयं के साथ-साथ समाज का भी कल्याण करता है। वह ज्ञान-साधना के क्षेत्र में जो अध्ययन, मनन और चिन्तन करता है, उसका नवनीत वह समाज को देता है। ___ समाज को मर्यादित व नैतिक बनाने में साधु संस्था महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। ये समाज से सिर्फ रोटी, कपड़ा लेकर समाज के नैतिक आदर्शों को जीवित रखते हैं। यदि हम परस्पर प्रेम, स्नेह और सद्भावना के प्रतीक रूप समाज की कल्पना करते हैं, हमारे बच्चों और भावी पीढ़ी में संस्कार चाहते हैं तो इन उच्चादर्शों के पालन करने वाले साधुओं के महत्त्व को स्वीकार करना ही होगा।
यह बात भी सही है कि इन श्रमणों के वेश में ऐसे अनेक तत्त्व शामिल हैं जो इनकी छवि को बिगाड़ रहे हैं, समाज को उनसे साव
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