SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४८ ) ३१-रोग, उपसर्ग या परीषह आने पर गृहस्थावस्था या पारिवारिव __ जनों को याद करना । ३२--मूली ३३-अदरक ३४-गन्ने का टुकड़ा ३५-सूरण ३६-मूल जड़ी ३७-फल ३८-बीज ३९-संचलनमक ४०-संधानमक ४१--सादानमक ४२-रोमदेश का नमक ४३-समुद्री नमक ४४-धूल युक्त नमक ४५-काला नमक का उपयोग करना। ४६- शरीर या वस्त्र को धूप देना। ४७-बिना कारण जानबूझकर वमन करना । ४८-गुह्यस्थान की शोभा करना। ४९--बिना कारण जुलाब लेना। ५०-आँखों की शोभा के लिए अंजन या सुरमा लगाना । ५१--दाँतों को रगड़ना। ५२-व्यायाम-कसरत आदि करना। __इस प्रकार ५२ अनाचारों से यह स्पष्ट है कि साधु का जीवन सीधा-साधा व सरल होना चाहिए। जो साधु इन ५२ अनाचारों से बचकर अपना संयम पालन करते हैं वे ही साधू-जीवन का यथार्थ में पालन करते हैं। वर्तमान स्थिति : इस प्रकार उपरोक्त जैन श्रमण की साधना-पद्धति पर शास्त्रीय दृष्टिकोण से विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि जैन परम्परा के चतुर्विधसंघ में साधु को जो सर्वप्रथम सम्मानजनक स्थान प्रदान किया गया है वह उनके वेश से नहीं आचरण से दिया गया है। सच्चा श्रमण वही है जो मन, वचन और शरीर से हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का पूर्ण रूप से त्याग करते हैं। कष्टों, उपसर्गों व परिषहों को समभाव पूर्वक सहन करते हैं, शारीरिक ममत्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525005
Book TitleSramana 1991 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy