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जैनधर्म के धार्मिक अनुष्ठान एवं
কলা নুনু
-प्रो० सागरमल जैन
कर्मकाण्ड और आध्यात्मिक साधनाएँ प्रत्येक धर्म के अनिवार्य अंग हैं। कर्मकाण्ड उसका शरीर है और अध्यात्मवाद उसका प्राण है। भारतीय धर्मों में प्राचीनकाल से ही हमें ये दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती हैं। जहाँ प्रारम्भिक वैदिक धर्म कर्मकाण्डात्मक अधिक रहा है, वहाँ प्राचीन श्रमण परम्पराएँ साधनात्मक अधिक रहीं हैं। फिर भी इन दोनों प्रवृत्तियों को एक दूसरे से पूर्णतया पृथक् रख पाना कठिन है। श्रमण परम्परा में आध्यात्मिक और धार्मिक साधना के जो विधि-विधान बने वे भी धीरे-धीरे कर्मकाण्ड के रूप में ही विकसित होते गये । अतः वर्तमान संदर्भो में न तो हम यह कह सकते हैं कि वैदिक परम्परा पूर्णतया कर्मकाण्डात्मक है और न यह कह सकते हैं कि श्रमण परम्परा के धर्मों अर्थात् जैन एवं बौद्धधर्मों में धार्मिक कर्मकाण्डों का पूर्णतया अभाव है। फिर भी आन्तरिक एवं बाह्य साक्ष्यों से यह सुनिश्चित हो जाता है कि इनमें अधिकांश कर्मकाण्ड वैदिक या ब्राह्मण परम्परा अथवा दूसरी अन्य परम्पराओं के प्रभाव से आये हैं । इन दोनों धर्मों ने मात्र उन कर्मकाण्डों को अपने धर्म और दर्शन के ढाँचे में ढालने का प्रयत्न किया है।
जैन परम्परा मूलतः श्रमण परम्परा का ही एक अंग है और इसलिए यह अपने प्रारम्भिक रूप में कर्मकाण्ड की विरोधी एवं आध्यात्मिक साधना प्रधान रही है। मात्र यही नहीं उत्तराध्ययन जैसे प्राचीन जैन-ग्रंथों में स्नान, हवन, यज्ञ आदि कर्मकाण्ड का विरोध ही परिलक्षित होता है। उत्तराध्ययनसूत्र की यह विशेषता है कि उसने धर्म के नाम पर किये जाने वाले इन कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों को एक आध्यात्मिकरूप प्रदान किया है। तत्कालीन ब्राह्मण वर्ग ने यज्ञ, श्राद्ध और तर्पण के नाम पर कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों के माध्यम से सामाजिक शोषण की जो प्रक्रिया प्रारम्भ की थी, जैन
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