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ब्रह्मचर्य की आज पताका ऊँची फहरे । चन्दनबालाओं का अंचल नभ में लहरे ॥ गोशालक की मूढ़ भावना मिटे जगत् से।
अनेकांत की सम्यग्दृष्टि ! रोक प्रलय रे॥ कानों में कीले ठोंके, तेरा क्या बिगड़ा ? मान मिले अपमान मिला, किसका क्या बिगड़ा । पहचानी है चेतन की मर्यादा जिसने । कहो देव ! फिर दुनिया में कैसा है झगड़ा ।
देवों का या इन्द्रों का कुछ योग नहीं था। स्वर्गपुरी के सुखों का उपभोग नहीं था । आध्यात्मिक शक्ति की यह थी चरमावस्था ।
मृत्यु नहीं थी, वृद्धावस्था, रोग नहीं था । आज जगत् को उसी शांति का गीत सुना दो। ईद्वेिष मिटाने का संगीत सुना दो। भेदभाव तज, हम तुम-से ऊँचे हो जायें । मनको मलको धो दे, वह नवनीत बता दो ॥
तेरे गौतम आज कहाँ हैं देवी सुलसा । अंतरिक्ष है आज प्रलय लपटों में झुलसा ॥ दो आशीष की विषमें अमृतधारा फूटे ।
गले मिले यह विश्व, स्वार्थ हो जाये तृण-सा ॥ जगत् प्राणियो, तभी तपस्वी पूजित होगा। विश्व-प्रेम की मधुरध्वनि से गुजित होगा। तभी तपस्या महावीर की सफल बनेगी । सकल विश्व में शांति का स्वर पूरित होगा ।
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