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( ४४ ) जीवन में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इससे महाव्रतों आदि के परिपालन में सहायता मिलती है व जीवन आचार दर्शन शुद्ध होता है। परीषहः
मुनि जीवन के आचार-विचार को यथा रूप पालन करते हुए अचानक कोई संकट उपस्थित होता है, तो उसे समभावपूर्वक सहन किया जाता है। इसी को परीषह कहते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र व समवायांगसूत्र में बाईस परीषहों का उल्लेख है : १. क्षुधा परीषह ५- भूख लगने पर भी नियम विरुद्ध आहार न __ लेना। २ तृषा परीषह - प्यास लगने पर भी नियम विरुद्ध सचित्त जल
न पीना। ३. शीत परीषह - वस्त्र की कमी से शीत लगने पर भी ताप ग्रहण
नहीं करना। ४. उष्ण परीषह - गर्मी लगने पर हवा, पानी व पंखे का प्रयोग
नहीं करना। ५. दंशमशक परीषह - डांस व मच्छर काटने पर क्रोध नहीं करना। ६. अचेल परीषह - वस्त्र के अभाव की चिन्ता नहीं करना । ७. अरतिपरीषह - सुख-सुविधा का अभाव होने पर चिन्तन
नहीं करना। .८. स्त्री परीषह - स्त्री संसर्ग की इच्छा नहीं करना । १. (क) 'बावीस परीसहा पण्णत्ता तं जहा-दिगिंछापरिसहे, पिवासापरिसहे
सीतपरिसहे, उसीठणमणरिसहे, दंसमसगपरिसहे, अचेलपरिसहे, अरइपरिसहे इत्थीपरिसहे, चरियापरिसहे, निसीहिआपरिसहे, तिज्जापरिसहे, उक्कोसपरिसहे, वहपरिसहे, जायणापरिसहे, अलाभपरिसहे, रोगपरिसहे, तणफासपरिसहे, जल्लपरिसहे, सक्कारपुरकारपरिसहे, पण्णापरिसहे, अण्णाणपरिसहे, दसणपरिसहे' ।
-समवाए-(सुत्तागमे) सूत्र पृ० ३३५ (ख) उत्तराध्ययनसूत्र, २१२
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