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९- चूहे आदि के बिल नहीं हों ।
१० - जहाँ त्रस जीव व शालि आदि के बीज नहीं हों । "
तीन गुप्ति :
गुप्ति का अर्थ है गोपन | आचार्य उमास्वाति ने “सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः " कहकर मन, वचन, शरीर के योगों का जो प्रशस्त निग्रह है, उसे गुप्ति माना है । गुप्तियाँ तीन हैं- मनोगुप्ति, वचनगुप्त व कायगुप्ति |
१. मनोगुप्ति -- उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्ति करते हुए मन को साधु यतनापूर्वक हटा लेवे । चंचल हुए मन को साधना से काबू में करे, ऐसा करने को मनोगुप्ति कहा गया है ।
२. वचनगुप्ति - दूसरों को मारने में समर्थ शब्द बोलना वचन संरम्भ है, दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाला शब्द वचन समारम्भ है व प्राणियों के प्राणों का अत्यन्त क्लेशपूर्वक नाश में समर्थ मंत्रादि गुण का वचन आरम्भ है । अतः साधु यतनापूर्वक वचन से इनमें प्रवृत्ति नहीं हो । *
३. काय गुप्ति - खाने-पीने, उठने-बैठने, हिलने- चलने आदि में अशुभ व्यापारों का परित्याग काय गुप्ति है । किसी को पीटने के लिए तैयार होना काय संरम्भ, प्रहार करना काय समारम्भ व वध के लिए प्रवृत्त होना काय आरम्भ है । " अतः साधु अपने को ऐसे कार्य करने से रोकें ।
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इस प्रकार समितियों का लक्ष्य काय, मन को चारित्र में लगाना है और गुप्तियों का प्रयोजन शुभाशुभ व्यापारों से मन हटाना है । समिति प्रवृत्ति व गुप्ति निवृतिरूप मानी गई है । अतः श्रमण के
१. उत्तराध्ययन सूत्र २४।१६-१८
२. तत्त्वार्थ सूत्र ९१४
३. उत्तराध्ययन सूत्र २५|२१
४. वही, २४।२३
५. वही, २४।२५
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