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में अल्प, बहुत, सूक्ष्म, स्थूल, सचित्त व अचित्त किसी भी प्रकार के परिग्रह को मन, वचन, काय से न ग्रहण करना, न ग्रहण करवाना और न ही ग्रहण करने वालों का अनुमोदन करना, अपरिग्रह व्रत माना गया है। इस प्रकार वस्त्र, पात्र के साथ-साथ शरीर व साधना के प्रति ममत्व नहीं हो, यह ही महाव्रती का सच्चा लक्षण है। अपरिग्रह को मजबूत करने के लिए पाँच भावनाओं का विधान किया गया है:१- प्रिय प अप्रिय शब्द-कान में पड़े प्रिय या अप्रिय शब्दों के
प्रति राग-द्वेष नहीं करना चाहिए। २- रूप-आँखों के सामने आने वाले मधुर, सुन्दर एवं विकृत रूप __को देखकर राग-द्वेष नहीं करना चाहिये। ३- गन्ध–वायु के साथ आने वाली दुर्गन्ध व सुगन्ध के समय
भी समभाव से रहना चाहिए। ४- रस-आहार के प्रसंग में स्वादिष्ट व निरस जैसा भी आहार
मिले उसे समभाव पूर्वक ग्रहण करना चाहिए। ५- स्पर्श-गर्मी, सर्दी, वर्षा में अनुकूल व प्रतिकूल उपसर्गों के
होने पर भी साधु को साधना में लीन रहना चाहिए। इस तरह पाँच महाव्रत और उसकी पच्चीस भावनाओं का सम्यक् रूप से पालन करना ही श्रमण का मूल ध्येय होता है। इसके पालन से ही वह आत्म-कल्याण के पथ पर अग्रसर होता है, एवं जनता के लिए मार्ग-दर्शन व प्रेरणास्रोत बन जाता है।
इन पाँच महाव्रतों की रक्षा व परिपुष्टता के लिए जैनाचार्यों ने पाँच समिति व तीन गुप्ति रूप अष्टप्रवचन माता का भी प्रतिपादन किया है। पांच समिति : ___ प्राणातिपात प्रभृति पापों से निवृत्त रहने के लिए एकाग्रतापूर्वक १. आचारांगसूत्र-मुनि आत्माराम, पृ० १४५४ २. वही पृ० १४५५-५७
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