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( ३४ ) के विकास का मार्ग प्रशस्त किया जाता है। ब्रह्मचर्य को पुष्ट करने के लिये एवं जीवन में व्रतों की सुरक्षा के लिये सदैव जागृत रहकर साधना करने के लिए भावनाओं का विधान किया गया है। आचारांगसूत्र में ब्रह्मचर्य की निम्न पाँच भावनाएं बतलाई गई हैं :१. स्त्रियों की कामविषय कथा नहीं करना-इससे विकारी भावना
जागृत होती है । साधना के विपरीत मनःस्थिति पैदा हो जाती
है, इसलिए साधक को इससे बचना चाहिए। २. विकार दृष्टि से स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों को नहीं देखना चाहिए। ३. पूर्व में भोगे हुए भोगों का स्मरण नहीं करना व शृंगार रस से
युक्त वासना को उद्दीप्त करने वाले साहित्य को नहीं पढ़ना
चाहिए। ४. अधिक मात्रा में व सरस आहार का सेवन नहीं करना चाहिए।
शारीरिक रूप से जितनी मात्रा में आवश्यकता हो, उससे अधिक नहीं खाना व जहाँ तक हो सके क्षुधा से भी कम व निरस आहार का सेवन करना चाहिए। स्त्री, पशु व नपुसक से युक्त स्थान में रात को नहीं रहना चाहिए, क्योंकि इनके संसर्ग में रहने से मन में विकारों को स्थान मिलता है और व्यक्ति का मन आत्म-कल्याण से विमुख हो जाता है।
५. अपरिग्रह - साधु द्वारा समस्त नौ प्रकार के बाह्य परिग्रहों व चौदह प्रकार के अभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग करना अपरिग्रह है। भूमि, भवन, रजत, स्वर्ण-सम्पत्ति, धान्य, दास-दासी पशु व घर-गहस्थी का सामान बाह्य परिग्रह हैं एवं मिथ्यात्व, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुसवेद, क्रोध, मान, माया, लोभ ये आन्तरिक परिग्रह हैं ।३ आचारांगसूत्र १. आचारांगसूत्र-मुनि आत्माराम, पृ० १४४५-४६ २. 'खेत्तं वत्थू धण-संचओ मित्तणाइ संजोगो जाण सयणासयाणि य दासी-दास च कुव्वयं च'
-बृहत्कल्पभाष्य २८५ ३. 'कोहो माणो, माया लोभो पेज्जं तहेव दो स अ मिच्छत्त वेद अरइ, रइ हासो सोगो भय-दुगंछा'
-बृहत्कल्पभाष्य ८३१
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